अज्ञान की वर्षा और पहेलियां
“आशा बलवतिम राजन, शल्यम जयतु पांडवान ।।”
भीष्म गए, द्रोण मारे गए और कर्ण भी अब कभी वापस नहीं आएंगे फिर भी शल्य पांडवो को जीतेंगे क्योंकि “आशा बलवती होती है राजन”.
ये दुर्योधन ने कहा था अन्याय और अधर्म की मूर्ति ने धर्म को हराने के लिए, तो क्या इसकी उपादेयता एवं मान्यता निलंबित कर देनी चाहिए?
तो क्या “वसुधैव कुटुम्बकम” इसी आधार मात्र पर निरस्त कर दिया जाए कि यह कहने वाला काल्पनिक पात्र दुराग्रह से ग्रस्त था?
“ज्ञान” कितना भी उन्नत क्यों ना हो स्वभाव से जड़ ही होता हैं. शस्त्र, औजार, विधान, यंत्र, नीति, योजना की ही भांति जड़! ये सभी सर्वदा चैतन्य की चेतना एवं मंतव्य के अधीन रहे हैं और हमेशा ही रहेंगे, वसुधैव कुटुम्बकम भी इससे परे नहीं है.
परमाणु विखंडन से प्राप्त ऊर्जा से करोड़ो लोग जीवन को बेहतर ढंग से जी रहे हैं वहीं इसी का दुरुपयोग हिरोशिमा और नागासाकी के रूप में भी उपस्थित है, तो क्या परमाणु ऊर्जा के विचार की ही निरस्त कर दिया जाए?
निश्चित रूप से चैतन्य का मंतव्य ही उसे सही या गलत सिद्ध करता है स्वयं वह विषय नहीं. क्या विश्व नागरिकता और वसुधैव कुटुम्बकम एक ही सिक्के के दो पहलू नहीं है विचारधारा के आदर्श के चरम पर?
हाँ ! लेकिन जब आप आज की वैश्विक परिस्तिथियो में विश्व नागरिकता की बात करते हैं तो लगता है दांत से मूंगफली नहीं टूट रही और हम होंठों से अखरोट तोड़ना चाहते हैं.
साथ ही क्या हमें वो लोग “विश्व कल्याण” या विश्व नागरिकता की चैतन्यता समझाएंगे जो अभी हमारे अध्यात्म के सम्मुख स्वयं मा्तृदुग्धजीवी शिशु है ??
वह संदेश जो कहता है कि,
अहमात्मा गुडाकेशः सर्वभूताशयस्थितः ……
मैं सभी प्राणियों के अंतर में आत्मचैतन्य के रूप में स्थित हूँ.
एवं,
“ईश्वर सर्वभूतेषु हॄदयेषु अर्जुन तिष्ठति ”
ईश्वर सभी के हृदय में स्थित है.
क्या ये श्रेष्ट आधार बनने योग्य नहीं है विश्वकल्याण के निमित्त बनने वाली किसी भी नीति /योजना के लिए?
यदि कोई हमसे छल करता है तो इसका अर्थ यह तो नहीं कि हम अपनी विचारधारा को ही दोषी मान ले, उन्होंने वह किया जो उनकी संस्कृति थी और हमने वह जो हमारी. और आज 1000 वर्षो की पराधीनता के पश्चात भी हम अपनी उस संस्कृति के मूल को संरक्षित किये हुए हैं तो आखिर किस तप के बल पर?
“जे रहीम उत्तम प्रकृति का करी सके कुसंग,
चंदन विष व्यापत नहीं, लिपटत रहे भुजंग ।।”
हम यदि हारे भी हैं तो अपनी अन्य कमियों अथवा दुर्भाग्य की वजह से ना कि हमारी संस्कृति और विचारधारा की वजह से.
शहद के गैलन लेकर आये वास्कोडिगामा को बहुमूल्य रत्नादि से सम्मानित करके हमने वसुधैव कुटुम्बकम / विश्व नागरिकता का पुनीत प्रयास किया था, वह अगली बार लुटेरों को लेकर चोरों की तरह भारत के वैभव को लूटने आ गया क्योंकि उन भिखारियों के लिए शहद ही श्रेष्ट रत्न हुआ करता था इससे पहले. क्या संपन्नता एवं समृद्धता से परिपूर्ण संस्कृति द्वारा अन्य संस्कृति के आतिथ्य का यह दुष्परिणाम हमारी वसुधैव कुटुम्बकम की अक्षमता मानी जाए अथवा उन भिखारियों का जीवन द्रव्यों के प्रति लूट के शुद्र दर्शन की विजय?
विवेकानंद जी ने विश्व युद्ध नहीं देखे, हिरोशिमा नागासाकी नहीं देखे लेकिन महाभारत युद्ध मे हुए संहार से पूर्णतः विदित थे, 1000 साल के आक्रमणों एवं जनहानि के दृश्य को भी कल्पित कर चुके थे फिर भी उन्होंने इस विचारधारा को वरेण्य समझा.
कारण इसकी प्रासंगिकता ही है.
निश्चित ही नीर-क्षीर विवेक एवं पात्रता निरीक्षण नितांत आवश्यक है इसमें कोई दुविधा नहीं है. पूर्ण सहमति है. “विश्व कल्याण ” की भावना हमारा एक आदर्श है विश्व की सबसे उन्नत आध्यात्मिक एवं मानवीय मूल्यों की ध्वजवाहक संस्कृति होने के नाते, लेकिन यह कोई शपथ नहीं है और ना ही अपरिहार्य वरीयता.
नीति आज भी यही कहती है कि पहले पैरों के नीचे प्रज्ज्वलित अग्नि के शमन का उपाय करें और फिर पहाड़ पर उद्दीप्त दावानल के उन्मूलन का विचार करना चाहिए.
राष्ट्रवाद और हिंदुत्व
किस भाव से महाकवि कालिदास गजो द्वारा अपने गण्डस्थल को खुजलाने कभी हिमालय के देवदार के स्तम्भ का चयन करते हैं और कभी विंध्याचल के क्षेत्र में नर्मदा के किनारे रक्त-श्वेत वर्ण पुष्पों के पेड़ो के स्कंध का?
केवल प्रकृति प्रेम के कारण?
किस भाव से श्रीकृष्ण मथुरा से द्वारिका चले जाते हैं और पांचालों से संबंध रखते हुए हस्तिनापुर एवं इंद्रप्रस्थ की घटनाओं को प्रभावित करते हैं?
किस भाव से बप्पा रावल “रावलपिंडी ” तक पहुँच गए थे और किस भाव से राणा सांगा खानवा तक गए थे बाबर से लड़ने?
राष्ट्रवाद किस रूप में रहा है यह शोध का विषय है लेकिन यह कह देना कि यह तो था ही नहीं कभी, अनुपयुक्त है. सीमाएं आज भी परिवर्तनशील हैं, थीं, और रहेंगी लेकिन भारतवर्ष, आर्यवर्त, जम्बूद्वीप सहित इस देवभूमि की आत्मा सनातन है जिसके अस्तित्व पर प्रश्न उठाना निराशाजनक है, आवश्यकता कालानुसार उसके स्वरूप दर्शन एवं व्याख्या की है.
हिंदुत्व / सनातन कोई विचारधारा नहीं है जिसे एक विषय के रूप में पढ़ा /समझा जा सके अथवा किसी परिभाषा में बांधा जा सके यह तो वह जीवनधारा है जो असंख्य कष्ट एवं षड्यंत्र सहकर भी आजतक निरंतर बह रही है अपनी विशेषताओं और चैतन्य के बल पर.
विश्वनागरिकता के संदर्भ में भी देखें तो न्यूयॉर्क एवं लंदन से बेहतर थे तक्षशिला और नालंदा, जहां शिक्षार्थियों को मात्र शिक्षार्थी मान कर कुटुंब में स्थान दिया जाता था, दाढ़ी देखकर छलनी नहीं कर दिया जाता था.
“काश” धातु अर्थात आलोकित कर देना, जिससे प्रकाश शब्द की व्युत्पत्ति हुई और उसी अर्थ में सम्पूर्ण विश्व को ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित कर देने वाली हिन्दूतीर्थनगरी “काशी” क्या ज्ञान के क्षेत्र में ऑक्सफ़ोर्ड एवं हार्वर्ड से बेहतर कॉस्मोपोलिटन राजधानी नहीं थी/है?
अतः ये उद्धरण भी सिद्ध करते हैं कि “हिन्दू राष्ट्रवाद” विश्वकल्याण का श्रेष्ठ विकल्प हो सकता है और इन्हें आपस में पूरक बताने वाले सारे प्रयास मात्र मिथ्या दुराग्रह मात्र है.
कहिये हिन्दू राजा श्रीराम के रामराज्य के सिवाय और कौन सी शासकीय उपमा है विश्व में जो एक आदर्श शासन व्यवस्था के चरम को अभिव्यक्त करने के लिए प्रयुक्त होती है?
सजग विवेक?
“कांटे को निकालने के लिए कांटा ही चाहिए ” यह नीति कहती है. क्रूर, निर्दयी और वसुधैव कुटुम्बकम के अपने दुष्ट संस्करण “औपनिवेशिकता” का विस्तार करने वाले अंग्रेजों से भारत को मुक्त करवाने के लिए नेताजी ने कांटे का उपयोग करने का प्रयास किया तो क्या गलत किया?
“यार की यारी से मतलब ना कि कारगुजारी से”
अंग्रेज जिस परोपकार के सद्भाव से आपको “सोने की चिड़िया” से एल्युमिनियम का भीख मांगने वाला “कटोरा” बना रहे थे, जिसका भविष्य 70 साल तक “विश्वबैंक” को अपने सकल घरेलू उत्पाद एवं राजस्व से ब्याज भरना था. क्या इसी परोपकार का विचार करके अज्ञेय उनकी तरफ से संभावित “नरभक्षियों ” से सहायता प्राप्त नेताजी के विरुद्ध लड़े और सजग विवेक की तुला पर नेताजी से भारी निकले?
खैर ! मैं इन्हें पूर्वज मानता हूं श्रेष्ठ पूर्वज, जिन्होंने यथासंभव अपना श्रेष्ठ प्रयास किया उन आताताइयों से मुक्त दिलवाने के लिए और हमारी संस्कृति अपने पितरों के विवेक पर प्रश्नचिन्ह लगाने की अनुसंशा नहीं करती चाहे संदर्भ कुछ भी हो और वह भी तब जबकि वे उस समय के उच्चतम प्रशासनिक अधिकारी स्तर की प्रज्ञा से युक्त रहे हो और जिनके एक आह्वान पर लोग सहर्ष अपना सर्वस्व अर्पित कर देते हो.
जो आपसे स्वतंत्रता के लिए रक्त मांगे और आप सहर्ष रक्तसरिता बहाने को प्रस्तुत हो जाए.
शास्त्रार्थ एवं संवाद
कितने लोग जानते हैं कुमारिल भट्ट एवं शंकर के मध्य हुए शास्त्रार्थ के विषय में? और कितने लोग उससे अपने जीवन को प्रभावित मानते हैं, जीवन बदलने वाला मानते हैं? और कितने लोग कृष्णार्जुन संवाद को जानते, मानते और जीवन के उत्कर्ष का आधार बनाकर असाधारण बन गए?
अंतर स्पस्ट है और यह बना रहना चाहिए. क्योंकि कृष्ण अर्जुन को अज्ञानी, मूर्ख नहीं कहते अपितु ऐसा मेरा मत है /ऐसा सांख्य कहता है /ऐसा पंडित (ज्ञानी ) लोग कहते हैं.” इस प्रकार कहकर समझाते हैं.
“कोई कितना भी अज्ञानी क्यों ना हो कभी सही बात नहीं कह सकता अथवा कोई कितना भी ज्ञानी क्यों ना हो कभी मूर्खतापूर्ण बात नहीं कह सकता ” यह निश्चित ही एक घातक अज्ञान है.
अतः
“उत्तम विद्या लीजिये यद्यपि नीच पे होए,
पढ़ा अपावन ठौर पर कनक तजै ना कोय।”
तो श्रेस्यकर यह है कि शास्त्रार्थ नही संवाद करे,
सुर ना भी समझे असुर समझ कर ही मंथन में सहयोग करें और विश्वकल्याण के लिए हलाहल एवं अमृत के प्रति समभाव रखे.
एवमस्तु,
मात पिता गुरुदेव की जय हो
धर्म की जय हो
अधर्म का नाश हो
प्राणियों में सद्भावना हो
“विश्व ” का कल्याण हो ।।
अंत मे मनोज कुमार की उस फिल्म का गाना गुनगुनाता हूँ
“है प्रीत जहाँ की रीत सदा ……………..
बाकी की बात यह आसानी से समझा देता है.