थिंकटैंक क्या होता है? बुद्धिजीवियों को थिंकटैंक क्यों कहते हैं? उनमें और टैंकों में क्या समानताएं होती हैं? टैंक क्या है? इसे आर्मर्ड फ़ोर्स क्यों कहते हैं? टैंक एक गाड़ी पर लगी हुई एक चलती फिरती तोप होती है. उस गाड़ी के ऊपर एक आर्मर प्लेट होती है जो दुश्मन के गोलों, बमों, गोलियों से उसे बचाती है. इसका रोल युद्धक्षेत्र में फटाफट और भारी तबाही मचाना और दुश्मन की रक्षा पंक्ति को तोड़ना होता है.
एक बुद्धिजीवी तोप तो होता ही है… कम से कम खुद को समझता तो है. तो वह आग उगलता है, गोले बरसाता है. पर कौन सी चीज उसे तोप से टैंक बनाती है? उसकी चपलता और गति… वह किस तेजी से पैंतरे और दिशा बदलता है… अपने निशाने साधता है. और जब तक आप उसे वापस निशाना बनाते हैं, वह स्थान और दिशा बदल चुका होता है.
आज रोहित वेमुला पर रो रहा होता है… जब तक आप उस विषय पर तथ्य पेश करते हैं, वह दादरी और बीफ पर गोलाबारी कर रहा होता है… जब तक आप उसे वहाँ घेरते हैं, वह इनटॉलेरेंस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का नया मोर्चा खोल देता है…
और अगर आपने उसे कहीं घेर लिया और तर्कों की गोलियाँ बरसानी शुरू कीं, कभी ट्विटर पर मिल गया, किसी मजलिस में मुलाकात हो गई… तो आपकी इन तमंचों की गोलियों का उस पर कोई असर नहीं होता. उसने भारी-भरकम ज्ञान की मोटी आर्मर्ड प्लेट लगा रखी है.
सारे तर्क-वितर्क, तथ्य और प्रमाण सामान्य मनुष्यों के लिए हैं, उनकी संवेदनशील त्वचा के लिए हैं… सहज बुद्धि और विवेक के लिए हैं. उनके ज्ञान की मोटी सॉलिड आर्मर्ड कवरिंग से छिटक जाते हैं. राष्ट्रहित और अस्तित्वरक्षा के जो सहज प्रश्न किसी पान दुकान वाले को भी समझ में आ जाते हैं, वे इन ज्ञानियों के ज्ञान की मोटी परत को भेद नहीं पाते…
पर एक टैंक एक सैनिक नहीं होता… एक इन्फेंट्रीमैन की तरह एक व्यक्ति नहीं होता है. अपने आप में एक समष्टि, एक यूनिट होता है. वह एक कमांडर के आदेश पर दिशा और लक्ष्य निर्धारित करता है, एक ड्राइवर के घुमाने से घूम जाता है, एक गनर उसमें गोले भरता है और लक्ष्य संधान करता है. बुद्धिजीवी की बुद्धि की तोप बिना इस पूरे तंत्र के काम नहीं करती… वह ‘थिंक’ है, पर ‘टैंक’ नहीं है… उसकी प्रहारक क्षमता छिन जाती है.
पर टैंक की एक कमज़ोरी भी होती है… किसी भी बुद्धिजीवी की तरह टैंक की भी कमज़ोरी होती है उसका पेट. उसके पेट, यानि तले में कोई आर्मर्ड कवच नहीं होता. इसलिए टैंक को निशाना बनाया जाता है उसके नीचे से.
जब टैंक किसी टीले पर चढ़ रहा होता है तो जैसे ही यह टीले को पार करता है, उसकी तोप का मुँह ऊपर होता है, पर उसका निचला हिस्सा थोड़े समय के लिए एक्सपोज्ड हो जाता है. खंदकों में बैठा दुश्मन उसी समय टैंक की पेट को निशाना बनाता है…
बुद्धिजीवी थिंकटैंक होता है… और जब पेट की मार को टैंक नहीं झेल सकता तो बुद्धिजीवी कहाँ से झेल पाएंगे… यूँ ही नहीं बिक जाते बेचारे, मजबूरी में…