मलयाली लेखक शिवशंकर पिल्लै ने एक घटना का उल्लेख किया है. ताशकंद में हुये किसी साहित्य सम्मलेन में जब वो भाग लेने गये थे तो वहां मौजूद कुछ पाकिस्तानी और बांग्लादेशी लेखकों के सामने उन्होंनें एक सुझाव रखा कि क्यों न हम सब मिलकर एक वक्तव्य जारी करें कि हम लोग एक ही विरासत, एक ही संस्कृति और एक ही इतिहास के वाहक हैं.
पिल्लै ने ये कहना शुरू ही किया था कि एक पाकिस्तानी लेखक चीख उठे कि आप ऐसा कैसे कह सकते हो? हम पाकिस्तानी हैं और इस नाते हमारी संस्कृति, हमारा इतिहास हिन्दू नहीं है बल्कि हम भी इस्लाम रूपी एक प्राचीन सभ्यता के वाहक हैं.
पिल्लै हतप्रभ हुये पर उन्हें लगा शायद ये दकियानूस ख्याल वाले कोई कट्टर शख्स होंगें पर तब उनकी हैरत का ठिकाना न रहा जब उन्हें पता चला कि ये शख्स कोई और नहीं बल्कि मशहूर शायर फैज़ अहमद फैज़ हैं, जिन्हें कम्युनिस्ट, प्रगतिशील और आज़ाद-ख्याल माना जाता है.
जो मानसिकता फैज़ की थी वही मानसिकता इक़बाल की भी थी. जी, उस इक़बाल की जिसके तराने को मूर्खतावश भारत के राष्ट्रीय गीतों में शुमार किया गया है और जो यहां की मिलिट्री का प्रयाण गीत भी है.
इक़बाल के जिस तराने की बात वो रही है उस तराने को इक़बाल ने अपने उम्र के 27वें साल में लिखा था. उस नज़्म का नाम था ‘‘तराना-ए-हिंदी’’. यह तराना 16 अगस्त 1904 को साप्ताहिक पत्रिका ‘‘इत्तिहाद’’ में छपा था जो बाद में इक़बाल के नज़्म संग्रह “बाँग-ए-दरा” में शामिल किया गया.
इस नज़्म को लेकर बड़ी गलतफहमी है कि ये इक़बाल के हिन्द से मुहब्बत का अज़ीमो-तरीन सबूत है पर हकीकत में ये नज़्म विस्तारवाद और भोगवाद की दुर्गन्ध समेटे हुये है. इक़बाल की इस नज़्म को आप उनकी ही एक और रचना ‘तराना-ए-मिल्ली’ से जोड़कर पढ़ें या उसके बिना पढ़ें, इसके भाव में कोई अंतर नहीं आता.
इस नज़्म की शुरूआती पंक्तियों को देखिये, इक़बाल कह रहे हैं “सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा/ हम बुलबुले हैं इसके, ये गुलिस्तां हमारा”. क्या मतलब है इसका? हिजाज़ से जो उन्माद की एक आंधी उठी थी वो नील के साहिर को लूटते-खसोटते हुये सिंधु और फिर बहुत बाद में गंगा तट तक भी आई थी.
वीरान, उजाड़ और बियाबान के अभ्यस्त नर-पशुओं ने जब हमारे भारत को देखा तो इसके वैभव और इसकी विपुल संपदा देखकर उनकी बांछे खिल गई, लगा, यार इससे बेहतर तो कुछ कहीं था ही नहीं. इसी भाव को नज़्म में पिरोते हुये अल्लामा कह उठे कि कई बाग़-बगीचों को नोंचने के बाद हिन्दुस्तान के रूप में जो गुलशन हमें मिला है उससे बेहतर तो कुछ भी नहीं है और शब्द फूट पड़े “हम बुलबुले हैं इसके, ये गुलिस्तां हमारा”.
आप बताइये कि हम सबको जिसे विरासत में इस देश को माँ मानने और कहने का संस्कार मिला है उसे ये पढ़ाया और गवाया जाता है कि हम बुलबुल हैं जो इस नर्गिस की सुंदरता पर मुग्ध होकर इसका भोग करने आयें हैं और लूट-खसोट कर यहाँ से निकल लेंगें.
ये बात वो कह सकता है जो इस कलुषित मानसिकता को लेकर इस देश पर हमलावर हुये थे पर दुर्भाग्य है कि ये कलुषित और भोगवादी ख्याल हम पर लाद दिया गया.
आप मेरे बारे में कह सकते हैं कि मैंने इक़बाल की सिर्फ दो पंक्तियों को पकड़ कर अपना फैसला सुना दिया पर ऐसा नहीं है, इस नज़्म की एक पंक्ति है “ऐ आबे-रूदे-गंगा, वो दिन है याद तुझको/ उतरा तेरे किनारे जब कारवां हमारा”. यहाँ “हमारा” से कौन मुराद है इसका चर्चा किसी और लेख में करेंगें पर ये बड़ा स्पष्ट है कि ये उस काफिले की यात्रा के एक पड़ाव का वर्णन है जो अरब से चली थी.
इसका प्रमाण उनकी ही एक और नज्म “तराना-ए-मिल्ली” में मिल जाता है जिसमें उन्होंने इस काफिले के बाक़ी पड़ावों का जिक्र किया है. उनकी पंक्तियाँ हैं, “ऐ गुलिस्ताँ-ए-अंदलुस! वो दिन हैं याद तुझको/ था तेरी डालियों में, जब आशियाँ हमारा/ ऐ मौज-ए-दजला, तू भी पहचानती है हमको/ अब तक है तेरा दरिया, अफ़सानाख़्वाँ हमारा…”, ये काफिला क्या था इसे बताने में भी इक़बाल बेईमानी नहीं करते, वो कहतें हैं, “सालार-ए-कारवाँ है, मीर-ए-हिजाज़ अपना”.
दिक्कत इक़बाल नहीं थे, बिलकुल भी नहीं. वो अल-तकिया जैसा भी कुछ नहीं कर रहे थे. दरअसल ये हमारी बेवकूफी थी कि हम उनकी बातों को समझ नहीं पाये. “तराना-ए-हिंदी” के जिस शेर “मज़हब नहीं सिखाता…” को पढ़कर आप सेकुलर महफ़िलों में तालियाँ बटोरते हैं और लड़कियों के बीच खुद को बड़ा दिल वाला ‘इंसान’ बताकर रिझाने की कोशिश करते हैं, उस शेर को इक़बाल ने हमारे-आपके लिये लिखा ही नहीं था.
इस्लाम के अंदर के अलग-अलग फिरकों और ‘स्कूल ऑफ़ थॉट्स’ को भी मज़हब ही कहा जाता है, मसलन हनफी मज़हब, शाफ़ई मज़हब, शिया मज़हब वगैरह. अल्लामा अपने उम्मत के भीतर की फिरकाबंदी के नाम पर चल रहे झगड़े से बड़े दु:खी थे और इसी दर्द में उन्होंने अपने उम्मतियों को समझाया कि ‘ये जो तुम शिया, सुन्नी, हनफी, हंबली के नाम पर लड़ते रहोगे तो हिन्द हाथ से निकल जायेगा.’ आपने उनकी बातों को अपनी जहालत में नहीं समझा तो इसके ज़िम्मेदार इक़बाल नहीं है.
इक़बाल के बारे में मैं अक्सर लिखता हूँ कि उनसे मेरा “हेट-लव” का रिश्ता है पर ये रिश्ता मेरा और इक़बाल का है, इस रिश्ते को आप शेरो-शायरी के लिये मेरी अतिशय मुहब्बत से जन्मी दुर्बलता भी कह सकते हैं पर मेरी व्यक्तिगत दुर्बलता राष्ट्र की दुर्बलता बन जाये ये मुझे गवारा नहीं है.
अगर प्रश्न राष्ट्र का हुआ तो मैं अंतिम इंसान होऊँगा जिसे इस शख्स अल्लामा इक़बाल से मुहब्बत होगी. इक़बाल के विचारों की चीड़-फाड़ से हो सकता है आपको तकलीफ़ हो पर राष्ट्र और हमारे लोग किसी भ्रम में न पड़ें. ये सबसे ज़रूरी है क्योंकि आजकल लोग ज्यादा पढ़ तो लेते हैं पर ज्यादती ये कर बैठते हैं कि सोचने-समझने के वक़्त को भी पढ़ने में ही समर्पित कर देते हैं, दिक्कत बिना सोचे-समझे सिर्फ पढ़ लेने वालों की अति-बौद्धिकता से है.
बहरहाल इक़बाल जैसे उन तमाम बुलबुलों से कह दो कि वो कोई और चमन ढूंढें, ये भोग भू नहीं है, यह मातृभू हमारी… सारे जहाँ से अच्छा…