ये कम्युनिस्ट, सेक्युलर, प्रगतिशील, लिबरल लोग किसी भी देश की साफ़ सुथरी छवि के लिए बेहद जरूरी होते हैं. अब जैसे अमेरिका है. वहां आज भी रंगभेद है. गाहे बगाहे वहां भी दबे रंग वाले लोगों की लिंचिंग होती है, पुलिस वाले भी दुर्व्यवहार करते हैं, मारते भी हैं.
इस पर भी अमेरिका की छवि किसी कट्टर राष्ट्र की नहीं है. हर ऐसी घटना के बाद तमाम लिबरल, सेक्युलर प्रोग्रेसिव अपने घरों से निकलते हैं, सड़क पर मोमबत्ती जलाते हैं, मार्च निकालते हैं. अखबारों में लेख लिखते हैं, कड़ी निंदा करते हैं.
इससे देश की एक अच्छी छवि बनी रहती है. अंदर कुछ भी हो रहा हो, बाहर सब कुछ डेमोक्रेटिक दिखता है. हमारे देश में सेक्युलर, प्रोग्रेसिव और लिबरल ऐसा नहीं कर पाए. वो अपने ही धर्म, अपने ही देश को हरपल बदनाम करके खुद की छवि चमकाते रहे.
कांग्रेस ने इस गुण को बहुत पहले भांप लिया था. उसने अपनी ही पार्टी में कई ऐसे लिबरल प्रगतिशील सेक्युलर पैदा किये. जैसे दिग्विजय सिंह, मणिशंकर अय्यर.
जामिया में बाटला हाउस एनकाउंटर हुआ. एक अवार्डेड पुलिस अधिकारी की मौत हुई. और आतंकवादी भी मरे, तब मुस्लिम समुदाय में कांग्रेस की इज्ज़त सुधारने दिग्विजय सिंह ने बयान दिया कि सोनिया माता एनकाउंटर की खबर सुनकर रात भर रोती रही.
मुंबई अटैक के बाद दिग्विजय सिंह ने इस आतंकवादी घटना में संघ को लपेटने की कोशिश की. इसी तरह मणिशंकर अय्यर अक्सर बयान देते रहते हैं, पाकिस्तान यात्रा करते हैं, कश्मीर जाते हैं.
सलमान खुर्शीद भी बयान देते रहते हैं. इनसे ऊपर कभी मनमोहन सिंह खुद निकले थे जब उन्होंने संसाधनों पर प्रथम अधिकारों की बात कही थी.
दरअसल ये सभी जोकर कांग्रेस की छवि को सेक्युलर प्रोग्रेसिव बनाये रखते हैं, अपनी कीमत चुकाकर. इन सभी का मजाक उड़ता है लेकिन ये अपने कर्तव्य का पालन करते हैं.
इन उदाहरणों से मैंने यही सीखा कि राजनीति साधारण नहीं है, बयानों को कभी उनकी फेसवैल्यू पर नहीं लेना चाहिए. महबूबा मुफ़्ती के तिरंगे, कश्मीर के विशेष दर्जे के बयान को फेसवैल्यू पर नहीं उसके निहितार्थ को देखना चाहिए.