रूठते से चाँद को या
टूटते दिल को संभालूँ .
अश्रुओं का अर्घ्य देकर
ओ! प्रिय तुमको मना लूँ ॥
किस ग्रह की चाल है जो
फेरकर मुँह को खड़े हो.
जान लो कि जान की
निज जान लेने पर अड़े हो ॥
सब्र मेरा टूट जाये
उससे पहले मान जाओ.
मम हॄदय की वेदना निज
धड़कनों से जान जाओ ॥
पास आओ तो तुम्हें मैं
बाहुपाशों में छुपा लूँ.
अश्रुओं का अर्घ्य देकर
ओ! प्रिय तुमको मना लूँ ॥
बिन तुम्हारे मन गगन के
सब सितारे रो रहे हैं.
तार सारे धड़कनों के
बे-सुरे से हो रहे हैं ॥
शैल सदृश नयन अपलक
क्षितिज में उम्मीद बांधे.
स्वयं भारी बेकरारी
आंसुओं का बोझ साधे ॥
अपनी पलकों पर उनींदी
आओ तुमको भी उठा लूँ.
अश्रुओं का अर्घ्य देकर
ओ! प्रिय तुमको मना लूँ ॥
एक एक पल इस विरह का
यूँ कि सदियाँ जा रही हों.
दृग-समंदर से निकलकर
सारी नदियां जा रही हों ॥
उँगलियाँ कटि पिंडलियां
मृतप्राय जैसे हो रही हैं.
धमनियां भी सिसकियों को
ज्यों दबाकर रो रही हैं ॥
व्यग्र अकुलाते ह्रदय को
निज नखों से खोल डालूँ.
अश्रुओं का अर्घ्य देकर
ओ! प्रिय तुमको मना लूँ ॥
– रूपाश्री शर्मा श्यामांगिनी
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