अल्लामा इक़बाल का एक शेर है, ‘अपने मन में डूब कर पा जा सुराग़-ए-ज़ि़ंदगी/ तू अगर मेरा नहीं बनता न बन अपना तो बन’. इक़बाल ने अपनी ज़िंदगी में सबसे खूबसूरत शेर खुदी की अवधारणा पर लिखे पर खुद कभी इसमें उतर नहीं पाये. अगर उतर पाये होते तो उनके शरीर में परकीय आत्मा का प्रवेश न होता.
किसी ने बड़ा सही लिखा था कि ‘भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों का मस्तिष्क एक जंग का मैदान बना रहता है जहाँ अरब और भारतीय संस्कृति में युद्ध चलता रहता है’. ये अनवरत युद्ध उसके अंदर ताउम्र चलता है, इक़बाल भी इसी रोग से ग्रसित थे. इक़बाल का मूल कश्मीर के ब्राह्मणों की सप्रू शाखा में था और अपने अतीत का ये सच भी वो जानते थे पर उनकी ज़हनियत कैसी है इसे देखिये.
विनायक सावरकर ने अपने उपन्यास ‘मोपला’ में मालाबार के एक ब्राह्मण परिवार का दृश्य चित्रित किया है जहाँ वैदिक सुरम्य वातावरण है, जहाँ पशु-पक्षी और जीव-जंतुओं को अभय है, जहाँ का वातावरण मंत्रोच्चार से गूँज रहा है, जहाँ छोटे बालक और बालिकायें खेल में भी ज्ञान-चर्चा कर रहें हैं.
किसी ब्राह्मण परिवार का ये चित्र सावरकर ने भले दक्षिण से खींचा हैं पर ये दृश्य बिलकुल उत्तर में बसे कश्मीर के किसी ब्राह्मण परिवार के लिये भी उतना ही सत्य है. इंसान में उसके सात पुश्त पहले तक के पूर्वजों का असर रहता है ये बात तो इस्लाम भी मानता है पर इक़बाल ने इसे बिलकुल खारिज कर दिया, अपने अतीत के संस्कारों से इतर वो कहने लग गये, ‘तेग़ों के साये में हम, पल कर जवाँ हुए हैं/ ख़ंजर हिलाल का है, क़ौमी निशाँ हमारा.’
अब इक़बाल से कौन पूछे कि ये शरीर में किसी और की आत्मा प्रवेश करने जैसा नहीं तो और क्या है, ये अपने मूल को ख़ारिज करने का अपराध नहीं तो और क्या है? ये ‘हम’ और ‘हमारा’ करते हुए इक़बाल अपनी पहचान को किससे जोड़ रहे हैं? इक़बाल के मतान्तरित हुए पूर्वजों की भी बात करें तो अधिक से अधिक उन्होंने छुरी-चाकू से मुर्गी-बकरी की गर्देनें रेती होंगी पर तेगों के साए में पल कर बड़े होने की बात?
‘ऐ आबे-रूदे-गंगा, वो दिन है याद तुझको/ उतरा तेरे किनारे जब कारवां हमारा’. गंगा के किनारे इक़बाल के किस पूर्वज का कारवाँ उतरा था? अरे गंगा को तो हमारे पूर्वजों ने धरती पर उतारा था तुम ये किसकी बात कर रहे हो? मज़हब की तब्दीली क्या पूर्वजों की भी तब्दीली हो गई, क्या सिर्फ मज़हब की तब्दीली ने इक़बाल को उन सबका वंशज बना दिया जो अरब से उठे थे? इक़बाल और उनके हिन्दू पूर्वजों ने कब कहाँ इस्लाम के लिये तलवारें उठाई थी? कब इस्लाम को फैलाने के लिये यूरोप और अफ्रीका में भटके थे?
इक़बाल को किसने तेगों के साये में नमाज़ पढ़ने को मजबूर किया था? किसी ने भी नहीं, पर इक़बाल लिख रहे थे – ‘थे हमीं एक तिरे मारका-आराओं में/ ख़ुश्कियों में कभी लड़ते कभी दरियाओं में/ दीं अज़ानें कभी यूरोप के कलीसाओं में/ कभी अफ़्रीक़ा के तपते हुए सहराओं में/ शान आँखों में न जंचती थी जहाँ-दारों की/ कलमा पढ़ते थे हमीं छाँव में तलवारों की.’
जब शरीर के भीतर किसी और की आत्मा का प्रवेश हो जाये, इंसान अपने मूल से खुद को काट दे और सच से आँखें मूँद ले तो वो विश्व-नागरिक तो दूर एक मुकम्मल इंसान भी नहीं रह जाता. मुस्लिम उम्मा की वहदत के लिए फिक्रमंद इक़बाल बेहद संकीर्ण थे, इतने संकीर्ण कि उन्हें किसी और उम्मत वाले की अच्छी चीजों से भी गहरा परहेज़ था.
वो मुसलमानों को ताना मारते हुये कहते हैं, ‘वजअ में तुम हो नसारी तो तमद्दुन में हनूद/ ये मुसलमां हैं जिन्हें देख के शर्माएं यहूद’ यानि उन्हें इस बात का बड़ा गहरा रोष है कि ये मुस्लिम ईसाइयों जैसे कपड़े क्यों पहनते हैं और आज भी हिन्दुओं के संस्कारों से खुद को अलग क्यों नहीं कर पाये हैं.
इक़बाल की मुहब्बत सिर्फ अपने लोगों के लिये है, वो ललकारते हुए कहते हैं, ‘एक हों मुस्लिम हरम की पासबानी के लिये/ नील के साहिल से लेकर ता-बखाके-काश्गर’. उनकी चिंता भी सिर्फ अपने लोगों के लिये हैं जिसे ज़ाहिर करते हुये वो कहते हैं, ‘रहमतें हैं तेरी अगियार के काशानों पर/ बर्क गिरती हैं तो बेचारे मुसलमानों पर’, यानि खुदा तेरी रहमत गैरों पर तो बरस रही है पर ज्यादती तू सिर्फ हम मुसलमानों पर करता है. इक़बाल को इस बात से घनघोर आपत्ति से है कि खुदा की रहमत गैर-मुस्लिमों पर भी हो. फिर इसके बाद मुहब्बत की शर्त रखते हुए ये भी कह देतें हैं, ‘की मुहम्मद से वफ़ा तूने तो हम तेरे हैं/ ये जहाँ चीज़ है क्या, लौह-ओ-क़लम तेरे हैं’.
‘शिकवा’ की आखिरी पंक्तियों में अपने शरीर में घुसे हिजाज़ी रूह को इक़बाल अगर ये कहकर तसल्ली दें कि “अजमे-खुम है तो क्या, मय तो हिजाज़ी है मिरी/ नगमा हिंदी है तो क्या, लय तो हिजाज़ी है मिरी” तो कुछ और कहने के लिये बाकी नहीं रह जाता.