कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी! आखिर है क्या वो ‘कुछ बात’

वह दीने-हिजाज़ी का बेबाक बेड़ा,
निशां जिसका अक्साए-आलम में पहुँचा

मजाहम हुआ कोई खतरा न जिसका,
न अम्मां में ठिठका, न कुल्जम में झिझका

किये पै सिपर जिसने सातों समंदर
वह डूबा दहाने में गंगा के आकर

अर्थात् “अरब देश का वह निडर बेड़ा, जिसकी ध्वजा विश्वभर में फहरा चुकी थी, किसी प्रकार का भय जिसका मार्ग न रोक सका था, जो अरब और बलूचिस्तान की मध्य वाली अम्मान की खाड़ी में भी नहीं रुका था और लालसागर में भी नहीं झिझका था, जिसने सातों समंदर अपनी ढाल के नीचे कर लिये थे, वह श्रीगंगा जी के दहाने में आकर डूब गया था”

मौलाना अल्ताफ हाली की इन पंक्तियों को पढ़ने से तो ये लगता है कि वह इस्लाम जिसने सारी दुनिया पर अपनी विजय पताका फहराई थी वह भारत में आकर पराजित हो गया. इसलिये हाली की इन पंक्तियों पर लोग सवाल खड़े कर सकते है कि आज जबकि भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमानों की भारी तादाद है, जो अरब और मध्यपूर्व के दर्जनों मुस्लिम देशों की कुल आबादी से भी ज्यादा है, यानि आबादी के लिहाज से तो इस्लाम सबसे ज्यादा इस उपमहाद्वीप में ही फैला तो फिर इस्लाम यहां पराजित कैसे हुआ? मौलानी हाली की लिखी इन पंक्तियों का अर्थ क्या है? ये वो बुनियादी सवाल है जो हाली की उपरोक्त पंक्तियों से उभरते है.

अरब और दूसरे मध्य एशियाई देशों से आये हमलावरों के प्रयासों ने यहां के सामान्य जनमानस की पूजा-पद्धति को बदलने में तो कामयाबी हासिल कर ली पर इनका दिल न जीत सके और न ही पूरी तरह उनकी परंपराओं और रीति-रिवाजों को अरबी सभ्यता के अनुरुप बना सके. दूसरे शब्दों में कहें तो अरब की सरज़मीं से उठे इस्लाम मत में इनका मतांतरण तो हुआ पर अरब संस्कृति में आत्मसातीकरण न हुआ.

इतना ही नहीं आक्रमणकारियों में से जो भारत में रह गये और जो उनके माध्यम से इस्लाम में दीक्षित हुये वो भी भारतीय संस्कृति के रंग में सराबोर हो गये. इतने सराबोर कि हिंदुओं के लिये अमृततुल्य गंगा जल को मुसलमान भी अपनी नसों में घुलता हुआ महसूस करने लगे. कभी राही मासूम रज़ा को पढ़कर देखिये.

कार्ल मार्क्स ने कहा था कि यदि शासक या विजेता राष्ट्र के लोग सांस्कृतिक रूप से श्रेष्ठ न हों और विजित राष्ट्र की सांस्कृतिक श्रेष्ठता अधिक हो तो विजेता के ऊपर विजित की संस्कृति हावी हो जाती है.

भारत के संदर्भ में मार्क्स ने यही लिखा, उसने कहा – “The Arabs, the Turks, the Pathans, the Moghuls were being Hinduised”. यानि यहाँ अरब, तुर्क, पठान, मुग़ल जो भी आया सबका हिन्दूकरण हो गया.

मुसलमान जब हमलावर रूप में भारत आये तब यहां होने वाले मूर्तिपूजा के चर्चे उनके मन में थे, इसी आधार पर भारत को वो जाहिलों का मुल्क समझ रहे थे पर यहां आने के बाद उन्हें पता लगा कि यहां के लोगों को जो तौहीद (एकेश्वरवाद) वो सिखाने आये हैं वो तो यहां तब से है जब दुनिया की बाकी सम्यताएं नींद में थी.

यहां आकर उन्हें ये भी लगा कि जिन भारतीयों को ये हेय समझते हैं वो तो ज्ञान-विज्ञान के हर क्षेत्र में उनसे मीलों आगे हैं. यही कारण है कि कालान्तरण में बगदाद के खलीफाओं ने अपने दरबार में कई हिंदू विद्वानों को बुलाकर सम्मान दिया था तथा उनकी मदद से संस्कृत के कई ग्रंथों का अनुवाद अरबी और फारसी में करवाये थे.

मध्य एशिया के बर्बर हमलावर महमूद गजनवी के साथ आये विद्वान अलबरुनी ने कश्मीर में संस्कृत सीखी थी, हिंदू धर्मशास्त्रों का अध्ययन किया था और इसके पश्चात् उसने एक किताब लिखी थी जिसमें उसने भारत और भारत के निवासियों की बड़ी प्रशंसा की है.

आक्रमणकारी अरब और मध्य एशियाई थे, इस्लाम का प्रचार उनके अंदर जुनून की तरह छाया हुआ था, गैर-मुस्लिमों (और विशेषकर वो जो अहले-किताब की श्रेणी में नहीं आते) के लिये उनके मन में गहरी नफरत थी पर ये सारी चीजें मिलकर भी हिंदुत्व की सर्वसमावेशी शक्ति के आगे नहीं टिक सकी. उनका दैनिक नित्य कर्म, बात-व्यवहार, आचार सब कुछ हिंदुस्तानी तहजीब के अधीन हो गई. चिश्तिया संप्रदाय के सूफी संत निजामुद्दीन औलिया ने तो ये तक कहा कि “मीसाक के रोज़ अल्लाह मुझसे हिंदी ज़बान में हमकलाम हुये.”

जब मुसलमान भारत आये और यहां आकर राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर जैसे अवतारों और महापुरुषों की जीवन-गाथायें पढ़ी तथा यहां के जनमानस में उनका ऊँचा मकाम देखा तब उन्हें अपने नबी की जुबान से निकले इन अल्फाज़ कि ‘हिंद से मुझे ठंडी हवाएं आती हैं’, का मतलब समझ आया.

जैसे-जैसे वक्त गुज़रता गया शक, हूण, यवन, पारसी, आदि समुदायों की तरह यहाँ आये विदेशी मुसलमान भी पूरी तरह यहीं के होकर रह गये थे. विशाल और सर्वसमावेशी और सबको आत्मसात करने वाली हिंदुस्तानी संस्कृति ने इस्लाम के प्रचारकों का हृदय बदलकर रख दिया था और उनकी बर्बरता और असहिष्णुता हिंदुस्तान की सर्वग्राह्य संस्कृति में लगभग विलीन सी हो गयी थी.

आप मुग़ल काल उठाकर देखिये, मुस्लिम बादशाहों का ज़्यादातर संघर्ष उनके अपने मजहब वालों के बीच ही हुआ, हिन्दुओं के साथ उतना नहीं.

एक या दो नहीं बल्कि सैकड़ों मिसालें हैं जो भारतीय मुसलमानों और आक्रांता के रुप में आये मुसलमानों के हिंदुस्तानी तहज़ीब से जुड़ जाने और उनके हृदय परिवर्तन की गवाह है. हिन्दुकरण की ये प्रक्रिया दारा शिकोह के आते-आते बहुत आगे बढ़ चली थी, यहाँ तक कि मुग़ल हरमखाने में भी हिंदुत्व के दीप प्रदीप्त होने लगे थे जिसे राजनैतिक रूप से चतुर औरंगज़ेब ने भांप लिया था और इसलिये वो और भी अधिक कट्टर हो गया.

जिस इस्लाम ने अरब समेत दुनिया से दर्जनों देशों की सभ्यता, संस्कृति, रीति-रिवाज, भाषा-बोली, मज़हब को बदल कर रख दिया था उसकी नाव गंगा के दहाने में क्यों डूबी? इस आक्रमण से भी ये देश और हम हिन्दू कैसे बचे रहे, अल्लामा इकबाल को क्यों लिखना पड़ा कि कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी (यहाँ हमारी से तात्पर्य हिन्दू है क्योंकि ये आवाज़ इकबाल के अंदर घुले हिन्दू संस्कार के थे).

इसी चीज़ को समझने एक ईसाई पादरी यहाँ आया था, आकर वो हर तरह से हिन्दू से मिला और अपने निष्कर्षों को उसने कलमबद्ध करते हुये “Review of Christ” नाम से एक किताब लिखी, अपनी किताब में उसने उन तमाम प्रश्नों के जवाब दिये हैं जो इकबाल से लेकर हाली तक को बेचैन करते थे.

उस ईसाई पादरी ने लिखा है – “Beware of the octopus of Hinduism” यानि इस हिंदुत्व रूपी ऑक्टोपस से सावधान रहना, नहीं तो अगर इसके नीचे आ गये तो तुमको पूरा निगल जायेगा (यानि आत्मसातीकरण), इसके आगे जो उसने लिखा वो तो और भी हैरान करने वाला है, उसने लिखा कि ये हिंदुत्व इतना खतरनाक है कि हो सकता है कि ये एक दिन जीसस को भी आत्मसात कर ले.

अल्लामा इकबाल ने जिस कुछ बात का जिक्र किया था, वो “कुछ बात” सबको आत्मसात करने का हमारा विशिष्ट गुण है. गुलामी के कालखंड में भी हमारी सबको assimilate करने की क्षमता इतनी थी कि हमारे भारत का मुस्लिम समाज यहां के बाकी लोगों के साथ एकात्म होने लगा था पर बीच के कालखंड में अंग्रेज और उसके बाद, यहां के राजनेताओं ने एकात्मता की इस धारा को तोड़ दिया और फिर हमने भी आगे प्रयास नहीं किये.

अगर अंग्रेज न भी आते और औरंगज़ेब जैसे बादशाह आगे भी आते तो भी वो अपने लोगों को इस धारा में समावेशित होने से नहीं रोक पाते, जब हिंदुत्व के शाश्वत सत्य की रौशनी मुग़ल हरम के घुटन भरे अंधकार में पहुँच चुकी थी तो बाकी समाज में न पहुँचने का सवाल ही नहीं था.

अवसर आज भी है, हमारे वर्तुल की परिधि आज भी उतनी ही विस्तृत है बस आत्मसातीकरण का जज़्बा मर चुका है.

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