‘तुम्हें याद है जब तुम पहली बार मिले थे, मैंने क्या सवाल किया था.’ दिल्ली के तुर्कमान बस्ती की गहमागहमी को देखते हुए ‘चीफ’ के सबसे ख़ास मंत्री ओंकारनाथ अपने ख़ास अफसर नवीन सरकार से पूछते हैं. अफसर अपना चश्मा ठीक करते हुए कहता है ‘याद है सर, आपने पूछा था दो और दो कितने होते हैं और मैंने जवाब दिया था आपको कितने चाहिए, हो जाएंगे’. ओंकारनाथ, नवीन की ओर गहरी नज़र डालते हुए कहते हैं, ‘उस दिन मैंने तुममे कुछ डिफरेंट देखा था, इमरजेंसी सुनहरा मौका है नवीन, इसे हाथ से जाने मत दो.
इंदू सरकार का ये सीन सब कुछ स्पष्ट कर देता है. ये सीन बताता है कि आपातकाल के उन्नीस महीने किस तरह माँ-बेटे और उनसे जुड़े मंत्रियो-अफसरों के लिए अपने घर भरने का जरिया बन गए. मानो देश उन्नीस माह तक ‘परिवार’ की टैक्सी में सफर कर रहा था. इस दुखदायी राइड का किराया भी उन्होंने मनमाने ढंग से वसूल किया.
मधुर भंडारकर की ये फ़िल्म इंदिरा गांधी और उनके सुपुत्र के जीवन पर कोई सर्च लाइट नहीं गिराती लेकिन आपातकाल के स्याह अंधेरे की कसमसाहट को जिंदादिली से बयान करती है. निर्देशक फ़िल्म में कहीं भी ‘निजी’ प्रहार नहीं करते. मधुर का कैमरा ‘परिवार’ के कमरों में ‘रोल’ नहीं करता बल्कि उनकी कारों के भीतर, भाषण और पार्टी ऑफिस तक ज़रूर जाता है. जब आप देश की बड़ी घटना पर फ़िल्म बनाते हैं तो निजी प्रहार से बचकर निकलना जरुरी होता है.
इंदू सरकार अनाथ है. बचपन से हकलाती है. एक दिन उसे नवीन मिलता है जो चीफ के ख़ास मंत्री के यहाँ नौकरी पर लगा है. प्यार के बाद शादी हो जाती है. देश में लगा आपातकाल उनके वैवाहिक जीवन पर भी ‘आपातकाल’ लगा देता है. ‘परिवार’ आपातकाल के नाम पर अत्याचार कर रहा है. जो विरोध करता है उसे मीसा के नाम पर जेल भेजा जा रहा है. ऐसे में देश नानाजी की ओर उम्मीद से देख रहा है.
पिछली फ़िल्म पिंक से कीर्ति कुल्हारी ने जो स्पार्क दिखाया था, वो इंदू सरकार में ‘पॉवर हॉउस’ बन चुका है. इंदू का किरदार बाकी किरदारों पर भारी है. अनुपम खेर के हिस्से भी कम दृश्य आए हैं. चीफ के किरदार में नील नितिन मुकेश बेहतर रहे हैं. सभी कलाकारों ने उत्तम किया लेकिन सर्वोत्तम कीर्ति ही रही हैं. उनके ‘अंडरप्ले’ ने मुझे बहुत प्रभावित किया.
फ़िल्म का ‘आर्ट डाइरेक्शन’ कमाल का है. एक सीन में इंदू बस स्टॉप पर खड़ी है. ऊपर सरकारी विज्ञापन है ‘हम दो हमारे दो या तीन बस- एक के बाद अभी नहीं, दो के बाद कभी नहीं’. स्टॉप की दीवार पर अमिताभ बच्चन की फ़िल्म ‘ज़मीर’ का पोस्टर धूल खा रहा है. इतनी वास्तविक लोकेशंस रचने के लिए आर्ट डाइरेक्टर को साधुवाद. ऐसे ही प्रयास कालखण्ड फिल्मों में वास्तविकता का पुट लाते हैं.
फ़िल्म आपातकाल की निर्दयता को बड़ी साफगोई से दर्शक के सामने रखती है. उस परिवार के नंगे सच को बताती है जिसके ऐशो आराम के लिए बस्तियां उजाड़ दी जाती थी.
आज जेएनयू से ‘हमें चाहिए आज़ादी’ के नारे गूंजते हैं. ऐसे लोगों को ये फ़िल्म दिखाई जानी चाहिए ताकि ये जान सके कि आज की हवा कितनी आज़ाद ख्याल है जो वे अपनी बात कह सकते हैं. देश को गाली दे सकते हैं, धर्म को गाली दे सकते हैं. आपातकाल में तो अख़बार ये भी नहीं छाप सकते थे कि सरकार के विरोध में नुक्कड़ पर आम सभा होनी है.
अंत में
मधुर भंडारकर ने एक साहसिक प्रयास किया है. फ़िल्म की लागत मात्र 11 करोड़ है. इस हिसाब से शाम तक ये ‘ब्लॉकबस्टर’ हो चुकी है. ये कोई महान फ़िल्म नहीं है लेकिन एक ‘आईना’ ज़रूर है. यही कारण है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी के नेता ये ‘आईना’ देखने से कतरा रहे हैं. वे देश को अपनी जागीर समझते थे, ये देश को अपनी जागीर समझते हैं.