जग्गा जासूस “ऐसे” नही बनी है जैसी कि आप दर्शक के तौर पर देखना चाहते हैं. ये “वैसी” बनी है जैसी दरअसल निर्देशक अनुराग बसु इसे बनाना चाहते थे. जग्गा जासूस के साथ यही समस्या है. इसकी पसन्दगी और नापसंदगी की एक बड़ी वजह ये ही होगी.
फिल्म के साथ अनेक मौकों पर असहमतियां है, घनघोर बोरियत है पर हाँ, जो कुछ देख रहा था वो कुछ अनोखा था जिसमे एक “विजन” था (आप सहमत हो या असहमत), एक कलात्मकता थी, सौंदर्य था, एक अलग दुनिया थी और कुल जमा बात ये कि अपनी तरह का अनूठा प्रयोग था जिसके लिए अनुराग बसु का स्वागत होना चाहिए. तारीफ रणवीर कपूर की भी होनी चाहिए. ऐसी फिल्म पर पैसा और दिल लगाना दुनियादारी की जबान में मूर्खता से कम नहीं. जिस फिल्म को “कॉमिक” नरेशन और इमेजिनेशन में बनाया गया, संवाद गीत के रूप में रखे गए हो, कमर्शियल सिनेमा की सारी होशयारी ताक पर रखी गई हो, उस पर रणवीर ने इतना पैसा और समय देकर साहस दिखाया. बड़े कलेजे वाला इंसान निकला. बड़े “दिल” वाले इंसान के तौर पर तो खैर पहचान है ही.
“सॉफ्ट इमोशन” अनुराग बसु के सिनेमा का “बेसिक” है तिस पर उनका प्रस्तुतिकरण हर फिल्म में “माशा”. इसके इर्द-गिर्द होता है पूरा ताना-बाना. फिल्म “गैंगस्टर” के चलताऊ प्लाट में भी जिस तरह और जैसी सिचुवेशन में अनुराग बसु ने अहसास बोये थे, याद है और रहेंगे. याद तो लिखते हुए अचानक शाहनी आहूजा भी आ गए. प्रतिभा के मानवीय विचलन का उदाहरण. याद आये प्रीतम भी. प्रीतम का संगीत भी अनुराग बसु की फिल्म के लिए सवाया मधुर होता है, इसमें भी है.
अनुराग की फिल्म को उसी के नजरिये से देखनी चाहिए. बर्फी देखते हुए भी मैं बहुत बार डायरेक्टर बन गया था. सोचा, ऐसे नहीं वैसे होना चाहिए था. ऐसा होता तो शायद और इमोशनल होती फिल्म. ऊपर से चार्ली चैपलिन की फिल्मों से सीधे तौर पर सीन कॉपी करने से बिदक गया था.
इस “ऐसे-वैसे” के फेर में बर्फी का आनंद नही ले पाया. चिढ़ तब और परवान चढ़ी जब उस साल पान सिंह तोमर की जगह बर्फी को ऑस्कर के लिए नॉमिनेटेड किया गया. बर्दाश्त ही नहीं हुआ. आखिर पान सिंह तोमर फिल्म नहीं एक अद्भुत सिनेमाई घटना थी. लगा कि तिग्मांशु धूलिया और इरफान की प्रतिभा के साथ ज्यादती हुई जैसे इस साल अलीगढ़ के लिए मनोज वाजपेयी को नेशनल अवार्ड न मिलने से हुई.
खैर, अब लैपटॉप पर यही बर्फी आनंदित करती है. कुछ सीन तो रिपीट कर कर के देखता हूँ. बर्फी के रूप में रणवीर की मासूमियत सुकून देती है. लगता है कि हां, दुनिया वैसी नहीं है जैसी निष्ठुर सी हमसे अक्सर मिलने आ जाती है या दिखाई देती है. ऐसी कॉमिक पुलिस, गुंडे, गैंगस्टर, लोग, दोस्त, प्रेयसी अनुराग बसु अपने सिनेमा में दिखा रहे है. बकौल गुलजार ये ऐसा ही है कि पत्थर की दीवारों के बीच बेलें फिर भी उगती हैं और गुँचे भी खिलते है, चलते हैं अफ़साने, किरदार भी मिलते हैं. ये किरदार ही बर्फी और जग्गा जासूस से प्यार जगाते है. ये प्यार रणवीर के पिता की भूमिका निभाने वाले साश्वत चटर्जी से भी हो गया है. एक्टर जो होते है वो अच्छा काम करते है पर ये साश्वत चटर्जी है जिसने इस फिल्म में बड़ा “प्यारा” काम किया है.
प्यारा तो प्रीतम ने एक गाना भी बनाया है फिल्म के लिए, जिसके हैंगओवर मे इन दिनों हूँ. “फिर वही” के नाम से, जिसे अरिजीत ने गाया है. इसके ओपनिंग म्यूजिक में प्रीतम ने जादू भर दिया है. गाना ठीक ठाक सा है जैसा अरिजीत के गाने इन दिनों आ रहे है, बस इसका ओपनिंग पीस गजब है. प्रीतम ने इसमें गजब कारीगरी दिखाई है. अगर ओरिजिनल है तो सलाम, अगर कॉपी है तो भी प्रीतम प्यारे, कोई ना, तेरी इस चॉइस को सलाम.
यार-दोस्त फोन करके पूछते है कि- कहाँ हो? में अक्सर कह देता हूँ- चाहने वालो के दिल में. बातचीत की टोन प्रेमिल हो जाती है. घटाटोप निराशा में भी पॉजिटिव हो उठते है. अभी नहीं कहता हूँ. पूछते हैं – कहाँ हो? कहता हूं – जग्गा जासूस फिल्म आई है ना, उसका एक गाना है- फिर वही… उसी के ओपनिंग पीस में हूँ, तू भी आजा. यहीं मिलते हैं.