सिनेमा के बहाने : चरित्र का अभिनेता और जीवन के सम्मोहन से घिरे मोहन अगाशे

डॉ मोहन अगाशे के नाम और काम दोनों ही से सब परिचित हैं. मैंने शायद उन्हें सबसे पहले ‘अब तक छप्पन’ में ही देखा था. फिर एक दिन अचानक उनसे फोन पर बात हुई. और फिर पुणे फ़िल्म इंस्टीट्यूट में अक्सर उन्हें देखता. नेपाली टोपी लगाए अगाशे किसी सैन्य अधिकारी से कम नहीं दिखते. सो बातचीत का सवाल ही नहीं. लेकिन फिर अचानक से एक मित्र के कारण उनसे मुलाक़ात हुई. और इतनी गहरी के अगले दिन वो खुद अपनी स्कूटी से कोई सीडी देने के लिए फ़िल्म इंस्टीट्यूट आए. उसी एफटीआईआई में जहां वे डायरेक्टर रह चुके थे. पर्दे पर, रंगमंच पर या आम ज़िंदगी में …हर जगह वे कला में उतरते हुए ज़िंदगी से सराबोर ही नज़र आए.
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भारत में जनसामान्य को किसी चरित्र अभिनेता (अथवा आम फ़हम अभिनेता नहीं) का परिचय देने के लिए हिन्दी सिनेमा की कुछेक फ़िल्मों के कुछेक दृश्य दिखाने भर होंगे. अभिनेता दृश्य की ताक़त होते हैं और भारत में आम आदमी सिनेमा का ज़बर्दस्त प्रेमी. कभी-कभी तो इतना कि किसी फ़िल्म के दृश्य बाक़ायदा डायलॉग सहित याद रहते हैं. इसलिए भी हिन्दी सिनेमा के अभिनेता का सजग और चुस्त होना ज़रूरी है. दर्शक की रुचि उसका मनोविज्ञान आदि रिसर्च के बाद जो इंडस्ट्रीनुमा सिनेमा हमारे यहाँ बनता है वो इसलिए भी असफल होता है क्योंकि भारतीय दर्शक को बड़ी आसानी से बुद्धू समझ लिया जाता है. कि फलां-फलां टाइप सेट या दृश्य या कहानी के आधार पर एक टाईप्ड फ़िल्म बना कर निर्माता अपना पैसा वसूल कर लेगा.

पर वास्तव में ऐसा होता नहीं. अपनी सुप्त अवस्था में भी दर्शक हिन्दी फ़िल्मों के लिए जाग रहा होता है. और पांचों ज्ञानेन्द्रियों के अलावा जितनी भी तरह की मनोवैज्ञानिक खोजों वाले असरकारक तत्त्व बताए गए हैं उसके अलावा भी जो कुछ हो सकता है वो सब लेकर एक आम दर्शक सिनेमा हाल में फ़िल्म देखने पहुंचता है.

बहरहाल, बात केवल दर्शक की नब्ज़ पर हाथ रखकर अभिनेता तक पहुँचने की थी. और इसलिए अवाम को ऐसे कई अभिनेता याद हैं जिनका शायद नाम भी उसने न सुना हो. जैसे अपने लिए मुझे अमिताभ बच्चन अभिनीत ‘डॉन’ के किरदार नारंग की खूब याद है. वो एक अलग तरह से ही ज़ेहन में हैं. या फिर ‘अमर, अकबर, एंथनी’ में परवीन बाबी के बॉडीगार्ड का चेहरा बराबर स्मृति में बना है. कुछ बरसों पहले आई फ़िल्म ‘कहानी’ के बॉब बिस्वास को भी लोग भूले न होंगे. पुरानी फ़िल्मों के कई ऐसे चेहरे लगातार आँखों के सामने आ रहे हैं भले वो फ़िल्में भी याद न हों.

कुल मिलाकर लगातार अतीत में बने रहना और किसी एक अक्स का स्मृति में बस जाना हमारी इच्छाओं के किसी तरह पूरे होने जैसा ही है. सिनेमा वही काम करता है. पर चरित्र अभिनेताओं की एक लंबी फेहरिस्त है जिन्होंने न केवल अपने काम को स्वीकार्य बनवाया बल्कि उनके नाम के साथ सम्मान भी जुड़ा हुआ है. डॉ. मोहन अगाशे का नाम और काम किसी परिचय का मोहताज नहीं. सिनेमा और रंगमंच पर समान रूप से सक्रिय अगाशे की अभिनय यात्रा पाँच दशकों का सफ़र तय कर चुकी है और अब भी लगातार जारी है. 23 जुलाई को अपना सत्तरवाँ जन्मदिन मनाने वाले डॉ अगाशे के बहाने हम एक चरित्र अभिनेता की कला यात्रा के बारे में कुछ बात कर सकते हैं.

मराठी रंगमंच से शुरू हुई अगाशे की अभिनय यात्रा एक तरह से देखने पर उतनी भी कठिन नहीं दिखती जितनी एक आम अभिनेता की होती है. यह यात्रा उनके व्यक्तित्व की ही तरह बहुत ही अनुशासित और तटस्थ भी दिखती है. मोहन अगाशे की अभिनय यात्रा को तीन हिस्सों में बांटकर उनके अभिनेता के क़रीब पहुंचा जा सकता है. पहला है बचपन में नाटक से जुड़ाव. दूसरा मेडिकल की पढ़ाई और फिर बतौर साइकेट्रिस्ट प्रैक्टिस. तीसरा रंगमंच और सिनेमा. इन तीन हिस्सों में अलग-अलग तरीकों और कोणों से अगाशे की कलात्मक यात्रा में हम शामिल होते हैं.

बचपन में स्कूली दिनों में नाटक से जुड़ जाना और उसके सम्मोहन को अपनी कल्पना से जज़्ब करने की बुनियाद पर आगे चलकर वे जर्मनी के थिएटर आन्दोलन ‘ग्रिप्स’ से अपना जुड़ाव महसूस करते हैं. दरअसल ‘ग्रिप्स’ पेशेवर वयस्कों द्वारा बच्चों के लिए किया जाने वाला नाटक है. यानि वह नाटक, वह कहानियाँ जिसके दर्शक बच्चे होते हैं और जो बड़ों के द्वारा अभिनीत होता है. भारत में ग्रिप्स थिएटर के द्वारा बच्चों को नाटकों की दुनिया से परिचित कराने के उनके इस संकल्प के पीछे निश्चित ही उनकी ख़ुद की स्मृतियाँ होंगी जहां नाटकों की जादुई दुनिया को बच्चों के पास पहुंचाना वे अपनी ज़िम्मेदारी भी समझते हैं.

पढ़ाई का अनुशासन उनके रचनात्मक काम और अभिनय के पेशे में अलग तरह से आया जिसने अभिनेता की तैयारी, उसके स्वप्न और अदाकारी को समृद्ध ही किया. यहाँ लगातार चलते रहने वाला चिंतन, किरदार का मानस, मनःस्थिति, इमोशन, सांस्कृतिक परिवेश, लिखे गए नाटक के प्रभाव और उसकी यात्रा का एक बड़ा हिस्सा जीने की कोशिश उनके अभिनय में दिखाई देती है.

बतौर डॉक्टर मोहन अगाशे ने अपना काम जारी ही रखा और इस तरह जीवन के साथ जुड़ाव उनके अभिनेता को मराठी फ़िल्मों ‘अस्तु’, ‘कासव’ में संवेदना के स्तर पर सशक्त रूप से स्थापित करता है. रंगमंच पर उनकी यही संवेदना युवा दिनों में असर कर रही थी और जब्बार पटेल जैसे निर्देशक के साथ पहले ‘घासीराम कोतवाल’ जैसे नाटक और बाद में कई मराठी फ़िल्मों ‘सामना’, ‘जैत रे जैत’, ‘सिंहासन’ में अभिनय के साथ वे समानान्तर सिनेमा में भी बहुत अलग ढंग से रेखांकित होते हैं. सत्यजित रे, श्याम बेनेगल, गोविंद नीहलानी, गौतम घोष जैसे निर्देशक उनके अभिनय को ‘सद्गति’, ‘निशांत’, ‘मंथन’ ‘आक्रोश’, ‘पार’ जैसी फ़िल्मों में निखारते हैं.

बतौर अभिनेता लगातार चलते रहने वाला चिंतन और बाक़ायदा सिलसिलेवार तरीके से काम करते रहना उनकी कला यात्रा का महत्त्वपूर्ण अंग है जिसने न केवल समाज और जीवन से लिया ही है बल्कि एक कुशल कलाकार की तरह ज़िम्मेदारीपूर्वक समाज को वापस भी किया है. सिनेमा का ग्लैमर भी उन पर चढ़ा नहीं इसलिए युवाओं के साथ उनकी सहभागिता और चुहल आज भी जारी है. मुझे याद है दो साल पहले जब अपने कला समूह ‘विहान’ की कलाकारों को जोड़ने की अंतर्राष्ट्रीय पहल ‘वीफ़ा’ की अवधारणा बनी तो ‘ग्रिप्स’ पर बातचीत के साथ मोहन अगाशे की उपस्थिति ने हमें भीतर तक संबल दिया था. उनका काम न केवल मंच पर या परदे तक सीमित है बल्कि जीवन में कला के मायनों को समझने और जीने वाले गिने-चुने कलाकारों में उनकी गिनती होती है. अभिनय उनके लिए समय और जगह के उस लोक में जाने जैसा है जो केवल सपने में ही संभव है.

मोहन अगाशे जैसे अभिनेता दरअसल उस पाठशाला की तरह हैं जिन्होंने जीवन से बहुत कुछ सीख कर इस उम्मीद से वापस भी किया है ताकि आने वाली पीढ़ी उससे सीख सके. और इस उम्मीद से भी नहीं कि उसका कुछ हिसाब-किताब और श्रेय उनको भी दिया जाये. वे लगातार कर्म में यकीन करने वाले इंसान हैं. उनसे युवतर निर्देशकों की फ़िल्मों ‘रंग दे बसंती’, ‘अक्स’, ‘गंगाजल’, ‘अपहरण’, ‘अब तक छप्पन’ आदि में वही ज़िंदादिल शख़्स नज़र आता है जो सिनेमा और अभिनय के जादू को उतनी ही शिद्दत से महसूस करता है जितना कि एक बच्चा.

फिर मोहन राकेश लिखित ‘आधे अधूरे’ नाटक की पिछले कुछ वर्षों की प्रस्तुतियों में भिन्न किरदार निभा जाने की हसरत और लगन भी वही है. अब जीवन के ढलते वर्षों की बानगियों और तकलीफ़ों से गुज़रते जा रहे लोगों की मानसिक स्थिति को भीतर तक महसूस करती ‘अस्तु’ और ‘कासव’ जैसी फ़िल्मों के निर्माण और अभिनय के ज़रिये उनकी कोशिशें जारी हैं कि कला फिर कोई चमत्कार करे और ज़िंदगी जीने लायक बनी रहे. यह सब ज़ेहन की उन सब ग्रंथियों से रिस कर आया जहां कला एक पूरा जीवन समृद्ध करने की ताक़त रखती है.

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