सुनो,
क्या करोगी शिला बनकर,
प्रेम के चश्मे तो फिर भी फूटेंगे ही,
कितनी भी कठोर क्यों ना हो जाओ,
उबलता लावा तो बाहर निकलेगा ही…
अहिल्या भी बन गई थी शिला,
क्या हुआ?
राम ने छूकर उसे जीवित तो कर दिया
लेकिन स्त्री रूप में ही ना…
तुम नदी हो,
पर्वत का सीना चीर के बहो,
वह करो जो स्वभाव है तुम्हारा,
बड़ी बड़ी शिलाओं को मंजिल दिलाना
सामर्थ्य है तुम्हारा या कहो खेल है मात्र
बहो इस तरह की किनारे खिल उठे
मिल ना भी सके, छू भर तो सके,
करो सभ्यताओं और संस्कृतियों को धन्य
किनारों को जगमग, जीवित और प्रसन्न…
तुम नदी हो पावन, जीवनदायिनी,
किनारों की नित्य आल्हादिनी,
तुम्हीं किनारों को अस्तित्व प्रदान करती हो,
तुम्हीं उसके घाटों को वैभव दान करती हो,
वो तुमसे है, तुम उनसे नहीं हो
बिना तुम्हारे वो क्या है कहो?
प्रस्तरवाहिनी कभी स्वयं पत्थर ना हो,
इसलिए निर्बाध बहो, बहती रहो, बहती रहो…