कारगिल विजय दिवस पर खबर आ रही है कि न्यायालय (Armed Forces Tribunal) ने कर्नल पठानिया, कैप्टन उपेंद्र, हवलदार देवेन्द्र कुमार और लांस नायक लख्मी और अरुण कुमार को उम्र कैद की सज़ा को निलंबित कर दिया है. इसके साथ ही उन्हें ज़मानत भी मिल गई है, जिसके बाद वे सभी खुली हवा में सांस ले सकेंगे.
वैसे तो मैंने लेखन छोड़ रक्खा है लेकिन इस खुशखबरी ने मुझे अपना वह लेख याद दिला दिया है जो एक वर्ष पहले लिखा था. उनके साथ जो अन्याय हुआ है और जिन्होंने यह अन्याय किया है उनको भी आज याद कर लेते है.
तारीख : 30 अप्रैल 2010
स्थान : कश्मीर का माच्छिल सेक्टर
भारतीय सेना में कर्नल डी के पठानिया कश्मीर की घाटी में, अपने सेक़्टर माच्छिल में अपनी आँखों के सामने अपने जवानों को वीरगति प्राप्त करते हुए देख रहे थे. केंद्र की तत्कालीन यूपीए सरकार की कश्मीर के उग्रवादियों के प्रति सुरक्षात्मक नीति के कारण उनकी बटालियन किसी भी आक्रामक नीति का अनुसरण करने में असमर्थ थी और मानसिक रूप से टूटी हुयी थी. सेना को सुरक्षात्मक देख कर आतंकवादियों और समर्थकों के हौसले बुलंद थे और उनके निशाने पर सैन्य ठिकाने और सेना की मदद करने वाले निवासी बराबर हो रहे थे.
फिर एक दिन आतंकवादियों के आगे मनोवैज्ञानिक रूप से हारे और समर्पण जैसे हालात से जूझते हुए कर्नल पठानिया ने, ज़मीनी हालात का जायजा लेते हुए इस आतंकवादियों की तरफ से हो रहे प्रहार को रोकने का निर्णय लिया और इनके इस अभियान में उनके साथ कैप्टन उपेन्द्र, हवलदार देवेंद्र कुमार, लांस नायक लखमी व सिपाही अरुण कुमार शामिल हो गये. उनका यह अभियान सफल रहा और उन्होंने अपने इस अभियान में उस इलाके में सक्रिय आतंकी शहज़ाद अहमद, रियाज़ अहमद व मोहम्मद शफ़ी को खोज कर मुठभेड़ में मार गिराया.
कर्नल पठानिया और मेज़र उपेन्द्र की इस कार्यवाही से कश्मीर की घाटी में सक्रिय आतंकवादी संगठनों में खौफ समा गया, उनको भारतीय सेना से ‘सर्च एंड एलिमिनेट’ कार्यवाही की उम्मीद नहीं थी.
कश्मीर की घाटी सकते में आ गयी और इसका परिणाम यह हुआ कि घाटी में इन मौतों को लेकर राजनीति होने लगी. हुर्रियत ने जहाँ इन तीन आतंकियों को तीन मासूम कश्मीरी नौजवान बना कर सियासत गर्मायी, वही पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस ने इसको लेकर सेना को बदनाम करना शुरू कर दिया और उन्हें हत्यारा करार दे दिया.
उधर शेष भारत में कश्मीर के उग्रवादियों से सहानभूति रखने वाली एनजीओ और पत्रकारों ने टीवी और अखबार में इसको मानवाधिकार के उल्लंघन को लेकर बहस छेड़ दी और भारतीय सेना को कश्मीरियों के साथ जुल्म करने वाली संस्था के रूप में प्रचारित करने लगे. इसी माहौल में कई मुसलमान संगठन भी कूद पड़े और यहीं से यूपीए सरकार द्वारा कर्नल पठानिया और मेज़र उपेन्द्र की अनंत प्रताड़ना का दौर शुरू हो गया.
भारतीय रक्षामंत्री ए के एंटनी ने इन भारतीय सैन्य जाबांजों की शान-बान, उनकी प्रिय वर्दी उतरवा दी और उन्हें सेना से बर्खास्त कर दिया. तत्कालीन सरकार ने इन लोगों के खिलाफ मुकदमा दायर किया और जिस सरकार ने कर्नल पुरोहित को समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट में बिना चार्ज शीट के जेल में बंद रक्खा, उसने कोर्ट से इन लोगों के खिलाफ सख्त से सख्त सजा की गुजारिश की थी.
जो कोर्ट आतंकी याकूब मेमन के लिए रात में खुल जाती है उसने तीन आतंकियों को मार गिराने वाले कर्नल डी के पठानिया, मेजर उपेंद्र और उन पाँचों जवानों को हत्या का दोषी पाया और आजीवन कारावास की सजा सुना दी.
इस मुकदमे और सज़ा ने जहाँ सेना का मनोबल कश्मीर की घाटी में तोड़ दिया था, वहीं आतंकवादियों और उनके समर्थकों के हौसलों को बढ़ा दिया था. इन जाबांजों की सज़ा पर कश्मीर की घाटी में जश्न मना था और भारत में सेकुलर बिरादरी ने इसे मानवाधिकार की जीत बता कर यूपीए सरकार की वाहवाही की थी.
ये सारे भारत के सपूत आज भी जेलों में हैं. यह एक दुखद विरोधाभास है कि आज जहां कश्मीरी आतंकवादी बुरहान को पूरी दुनिया का मुसलमान जानता है और पाकिस्तान अपने पैदा किये गए आतंकी की मौत का मातम मना रहा है, वहीं पर हिन्दू फ़ौजी कर्नल डी के पठानिया और उनके साथियों को कोई भी नहीं जानता.
आज जैसे कश्मीर की घाटी ‘बुरहान मासूम, बुरहान मासूम’ के नारे लगा रही है और उसके साथ ही उनके समर्थक सोशल मीडिया, टीवी और अखबारों में इस दुर्दांत आतंकी को अमनी कश्मीरी बताने के जद्दोजहद में लगे हुए हैं, वैसे ही शहज़ाद अहमद, रियाज़ अहमद व मोहम्मद शफ़ी को मासूम बताया गया था, वैसे ही मीडिया और राजनीतिज्ञों ने उसे अमनी कश्मीरी बताया था.
आज हम जब We Stand With Indian Army को अपनी दीवारों पर सजा रहे हैं, तब कर्नल पठानिया और उनके साथियों की आवाज़ भी दीवारों पर सजानी चाहिए. आज हमको जब भारतीय सेना के ऋण को चुकाना है तब हमें भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से यह मांग करनी चाहिए कि कर्नल पठानिया और उनके साथियों का पुनर्मूल्यांकन करें. भारत के रक्षा मंत्री (अब पूर्व) मनोहर पर्रिकर से यह मांग करनी चाहिए कि इस केस को पुनः खुलवाएं और नए सिरे से इसकी जांच करें ताकि भारत की जनता की निगाह में कर्नल पठानिया और उनके साथियों के साथ बिना भेद भाव के न्याय हो.
मैं शुरू से कह रहा हूँ कि भक्तों, समर्थकों और विरोधियों को मोदी जी से संभल के रहना चाहिए क्योंकि मोदी जी को समझने वाले लोग ही नहीं है. मैंने कहा था कि शुरू के 2-3 वर्ष वह सिर्फ आलोचना सुनेंगे और कमजोर व दिग्भ्रमित होने का एहसास देंगे, असली चेहरा उसके बाद दिखेगा. यह 2017 ट्रांजिट पीरियड है और मोदी जी के मोहरे सब जगह बैठ रहे है. अब लोगो को सिर्फ प्रायश्चित और प्रतिघात की चालें चलती दिखेंगी.