“सप्तपदी” ताराशंकर बंधोपाध्याय की लिखी एक छोटी सी किताब है. सात कदम साथ साथ चलने पर जिन्दगी भर का साथ हो जाता है वाली मान्यता को लेकर लिखी गई इस किताब का नाम पड़ा है.
नायक भारतीय है और नायिका एंग्लो-इंडियन इसाई. लड़की के किसी एंग्लो-इंडियन (अभिजात्य) मित्र से नायक की बिलकुल नहीं पटती थी. नायक उसे फुटबॉल में हराता तो लड़की नायक से चिढ़ी भी होती थी. किसी तरह जब नायक को पता चलता है कि नायिका “जय काली” सुनते ही चिढ़ती है तो उसे और तंग करने के लिए वो उसके आस पास से गुजरते हुए “जय काली” का उद्घोष करना भी शुरू कर देते है.
कहानी आगे बढ़ती है तो नायक और नायिका के उस मित्र में मार पीट भी हो जाती है. जब नायिका पूछती है कि तुमने मेरे दोस्त को पीट क्यों दिया? तो नायक का जवाब था कि उसे समझना चाहिए था कि जोरदार आदमी की मार भी जबरदस्त होगी.
जोरदार आदमी की मार भी जबरदस्त होगी. टूटकर प्यार करने वाले नफरत भी बेहिसाब कर सकते हैं. इसी एक धागे को लेकर जाने कितनी कहानियां लिखी गई होंगी. एक कालजयी फिल्म थी “कासाब्लांका”, जो ऐसे प्रेम की कहानी थी. ऐसे ही विषय की छोटी सी अंग्रेजी कहानी भी थी, “स्पैरोज़” (Sparrows) जिसे काफी पहले के.ए.अब्बास ने लिखा था.
शायद स्कूल के दौर में सबने पढ़ी होगी. ये रहीम खान नाम के एक नौजवान की कहानी थी. वो सर्कस में शामिल होना चाहता था, अपने इलाके का मशहूर पहलवान भी था. उसे राधा नाम की एक लड़की पसंद थी. पिता का हुक्म हुआ और उसकी सर्कस में काम करने और राधा को पसंद करने की दोनों तमन्नाएं एक भी बार में ख़त्म कर दी गई. बाप का हुक्म मानते हुए रहीम खान ने किसी मुस्लिम लड़की से शादी की. रहीम खान अपने सपनों से शायद ज्यादा प्यार करता था, वो नाराज़ भी बरसों तक रहा.
कहानी के अंत में रहीम खान के उग्र स्वभाव से डरे हुए गाँव वाले उसके आस पास फटकने से बचते थे. वो अपनी झोपड़ी में एक दिन एक गौरया का घोंसला लगा देखता है. जब गौरैया के अंडे फूटे तो उसने गौरैया के बच्चों का नाम अपने बच्चों के नाम पर नूरु-बुन्दू रख दिया.
रोज रोज की पिटाई से तंग बीवी वापिस मायके जा चुकी थी और रहीम खान अब अकेला ही गौरैयों के साथ रहता था. एक रोज़ रात बारिश में गौरैया के घोंसले को बचाने वो छत की मरम्मत करने चढ़ा और भीग कर बीमार हो गया.
पहले तो गाँव वालों ने उसे नहीं देखा तो चैन की सांस ली, फिर झाँकने पहुंचे कि कहाँ गायब हुआ है तो देखा कि वो बीमार-मरणासन्न है. तेज बुखार में उसे नुरू-बुन्दू की फ़िक्र में बड़बड़ाते देख गाँव वालों ने उसकी बीवी के मायके सन्देश भेजा, लेकिन तबतक देर हो गई थी. रहीम खान गौरैयों की फिक्र करता ही मर गया, लोग कुछ और समझते रहे.
जब ये कहानी लिखी गई थी तो ये भी मुल्क राज आनंद की “The Lost Child” जैसी दुनिया की बेहतरीन कहानियों में से एक गिनी जाती थी. अब स्कूल की किताबों में जो भारत में लिखी कहानियां मिलती भी हैं, वो वही बरसों पहले लिखी कहानियां होती है.
अंग्रेजी किताबों के लिए मुल्क राज आनंद तो छोड़िये यहाँ हिंदी के लेखक भी नहीं बचे. अब हिंदी की किताबों में उर्दू के मिर्ज़ा ग़ालिब और बांग्ला के रबिन्द्र नाथ टैगोर को पढ़ना होता है. उर्दू की या बांग्ला की किताबों में कोई दिनकर, निराला की कविताएँ भी छापता है क्या? भावनाओं जैसे जोरदार विषय पर लिखने के लिए शायद नायक-नायिका नहीं बचे. जोरदार लोग होते तो उनपर लिखी कहानियां भी जबरदस्त होती. जोरदार लोग होते तो उनकी लिखी कविता-कहानियां भी जबरदस्त होतीं.
बाकी बेशर्मी बची है, जो ये नहीं पूछती कि हिंदी के नाम पर पल रहे तथाकथित साहित्यकारों ने हिंदी के नाम पर सृजन क्या किया? उन्हें हिंदी की किताबों में उर्दू फ़ारसी के लेखक क्यों हैं इस सवाल से दिक्कत होती है.