उड़ चल हारिल : कुमार विश्वास की आवाज़ का अविश्वनीय जादू

बकौल कुमार विशवास – किसी उदार पेड़ की झूलती शाखों की कृतज्ञता और जड़ों से बिछड़े हुए तिनकों के सहयोग से बने घोंसले तक पर आश्रित न होकर ‘हारिल’ नामक उन्मुक्त पहाड़ी पक्षी अपने सहारे के रूप में स्वयं का खोजा एक तिनका अपने पंजों में दबाए पूरी दुनिया की आकाशीय-सैर करता है. हिन्दी के यायावर विश्व-कवि अज्ञेय संभवतः हारिल में अपना और अपने स्वाभिमान पर विश्वस्त हर रचनाकार का अस्तित्व ढूंढते हैं.

उड़ चल हारिल लिये हाथ में
यही अकेला ओछा तिनका
उषा जाग उठी प्राची में
कैसी बाट, भरोसा किन का!

शक्ति रहे तेरे हाथों में
छूट न जाय यह चाह सृजन की
शक्ति रहे तेरे हाथों में
रुक न जाय यह गति जीवन की!

ऊपर ऊपर ऊपर ऊपर
बढ़ा चीर चल दिग्मण्डल
अनथक पंखों की चोटों से
नभ में एक मचा दे हलचल!

तिनका तेरे हाथों में है
अमर एक रचना का साधन
तिनका तेरे पंजे में है
विधना के प्राणों का स्पंदन!

काँप न यद्यपि दसों दिशा में
तुझे शून्य नभ घेर रहा है
रुक न यद्यपि उपहास जगत का
तुझको पथ से हेर रहा है!

तू मिट्टी था, किन्तु आज
मिट्टी को तूने बाँध लिया है
तू था सृष्टि किन्तु सृष्टा का
गुर तूने पहचान लिया है!

मिट्टी निश्चय है यथार्थ पर
क्या जीवन केवल मिट्टी है?
तू मिट्टी, पर मिट्टी से
उठने की इच्छा किसने दी है?

[कुमार विश्वास जैसा कुमार चाहे ‘आप’ से जुड़ा रहे, लेकिन ‘खुद’ से कभी विश्वासघात नहीं कर सकता]

आज उसी ऊर्ध्वंग ज्वाल का
तू है दुर्निवार हरकारा
दृढ़ ध्वज दण्ड बना यह तिनका
सूने पथ का एक सहारा!

मिट्टी से जो छीन लिया है
वह तज देना धर्म नहीं है
जीवन साधन की अवहेला
कर्मवीर का कर्म नहीं है!

तिनका पथ की धूल स्वयं तू
है अनंत की पावन धूली
किन्तु आज तूने नभ पथ में
क्षण में बद्ध अमरता छू ली!

ऊषा जाग उठी प्राची में
आवाहन यह नूतन दिन का
उड़ चल हारिल लिये हाथ में
एक अकेला पावन तिनका!

– अज्ञेय

 

  • कुमार विश्वास की फेसबुक वाल से साभार

 

 

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