स्वतंत्रता मिलने के पहले से ही इस देश के सार्वजनिक जीवन पर छद्म वामपंथियों का क़रीब-क़रीब एकाधिकार रहा. जैसे-जैसे समय बीता, सार्वजनिक जीवन पर उनका शिकंजा उत्तरोत्तर कसता ही गया. पहले नेहरू और बाद में इंदिरा ने इस विषबेल के फलने-फूलने के लिए खाद-पानी दिया. चाहे वह राजनीति हो या शिक्षा जगत या साहित्य या मीडिया – हर जगह यह बिरादरी फलती-फूलती गई.
किसी भी पौधे को प्रारम्भ में थोड़ी देखभाल की, tender loving care की आवश्यकता होती है. पर समय के साथ जब पौधा पेड़ बन जाता है और उसकी जड़ें गहरी हो जाती हैं तो वह हवा और ज़मीन से पोषण ग्रहण करता हुआ मज़बूत और स्वायत्त होता चला जाता है, उसे उतनी देखभाल की दरकार नहीं रहती. यही हुआ है छद्म वामपंथ की विषवेल के साथ. इसकी जड़ें अब मज़बूत, गहरी और घनी हैं.
इसे यूँ समझें कि जैसे आप एक विश्वविद्यालय में किसी विभाग के अध्यक्ष हैं और आप के यहाँ लेक्चरर की पोस्ट ख़ाली है. अब यह स्वाभाविक है कि जाने-अनजाने आप ऐसे ही किसी व्यक्ति को उस पद पर नियुक्त करना चाहेंगे जिसका सोचने का ढंग आपसे मिलता-जुलता हो.
फिर समय के साथ जब यह व्यक्ति वरिष्ठ होगा तो वह भी ऐसी ही नियुक्तियाँ करेगा. और देखते-देखते आपका विभाग एक जैसे सोचने वालों की नर्सरी बन जाएगा. सब पौधे वहाँ एक जैसे ही होंगे. और फिर उन पौधों के ध्यान में भी नहीं आएगा कि दुनिया में और भी तरह के पौधे हो सकते हैं. इसे कहते हैं creation of a self serving autonomous incestuous cocoon. फिर आपके विभाग में ताज़ी हवा के प्रवेश पर प्रतिबंध लग जाएगा.
ठीक यही हाल भारत में सार्वजनिक जीवन में हुआ है. जो बीस-बाइस साल का नया लड़का या लड़की एनडीटीवी में पत्रकारिता में प्रवेश करता है या करती है, उसे बना बनाया प्रौढ़ वैचारिक परिवेश मिलता है जहाँ सारे लोग एक जैसे हैं. फिर उसे अलग से या ताज़े तरीके से सोचने की क्या ज़रूरत?
हर किसी को अपना comfort zone अच्छा लगता है. उसके ध्यान में भी नहीं आता कि दुनिया को देखने के और भी नज़रिए हो सकते हैं जो एनडीटीवी जैसे न हों. वह मासूम युवा एक एनडीटीवी रोबोट में तब्दील हो जाता है. रोबोट की तरह हाथ हिलाना, बोलना, गाना, हँसना, रोना, सोचना (?).
फिर धीरे-धीरे यह युवा उस नर्सरी का एक प्रौढ़ पौधा बन जाता है और वरिष्ठ होने पर अपने से जूनियर लोगों को उसी ढाँचे में ढालता है. और फिर देखते-देखते एक फलता फूलता बाग़ीचा खड़ा हो जाता है जहाँ सारे फूल (या काँटे!) एक रंग के होते हैं.
एनडीटीवी सिर्फ़ एक मामूली उदाहरण है. बात समझाने के लिए. बल्कि इसका सबसे अच्छा उदाहरण तो हिन्दी ‘साहित्य’ है. Inbreeding से जैसे मानसिक और शारीरिक बीमारियाँ फैलती है, उसी तरह बौद्धिक विकलांगता चहुँओर बेहया के पौधे की तरह फैलती चली गई.
एक बात और हुई. क्योंकि उनका शिकंजा पीढ़ी दर पीढ़ी इतना मज़बूत होता चला गया उनके अंदर वही गुण आए जो पुराने ज़मींदारों में होते थे. अपनी बात के शत-प्रतिशत सही होने में सम्पूर्ण आस्था, भिन्न विचार रखने वालों के प्रति हिक़ारत और घृणा या अधिक से अधिक अधिक दया का भाव – देखो इन बेचारे अनपढ़ अभागों को, इनका दोष नहीं, बेचारों को सही शिक्षा नहीं मिली. पिटे पिटाए तोतारटंत मंत्रों – समाजवाद, प्रतिक्रियावाद, संशोधनवाद, मनुवाद, ब्राह्मणवाद, सामाजिक न्याय, वर्गसंघर्ष, सर्वहारावाद, बुर्जुवा, पूँजीपति आदि – को सर्वज्ञान का प्रथम और अंतिम सत्य मान कर घमंड बढ़ता ही गया और खोपड़ा फूलता ही गया.
ऐसा इसलिए भी हुआ कि उन्हें, उनके पूर्वजों, और उनके परवर्तियों को किसी ख़ास चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा. जब आप किसी प्रतियोगिता में अकेले प्रतियोगी हैं तो आप के टॉपर होने में क्या संदेह? और आप सत्तर साल लगातार टॉपर रहें तो आपके खोपड़े को फूलने का पूरा अधिकार है.
वामपंथी अपने ही बनाए इस तिलस्म में गिरफ़्तार हो गए कुछ वैसे ही जैसे कोकीन का नशेड़ी नशे में गिरफ़्तार हो जाता है और फिर उसे बाकी दुनिया दिखती ही नहीं.
अगले भाग में जारी…