मेरे जैसे मज़दूर ताउम्र इन बौद्धिक ज़मींदारों के समक्ष हीन भावना से ग्रस्त रहे. कहाँ ये महान विद्वान जिसके पास सकल ब्रह्मांड के हर सवाल का ख़ालिस और पक्का जवाब और कहाँ मेरे जैसे अनपढ़ गँवार. डरते-डरते एक उम्र गुज़र गई. मैं तो कहूँ – इन बुद्धिजीवियों के आतंक के साये में मेरे जैसे अनपढ़ों की ज़िन्दगानी सूख गई.
और इन स्वघोषित बुद्धिजीवियों का कम नुक़सान नहीं हुआ. उनके खोपड़े घमंड से फूलते गए और उनमें मौलिक विचार की ताज़ी हवा के घुसने की संभावनाएँ बंद होती चली गयीं. और दिल – वे तो सूख कर छुहाड़े जैसे हुए. जब खोपड़े इस बुरी तरह फूलेंगे तो बेचारा दिल तो सिकुड़ कर छुह़ाड़ा ही होगा न.
अनावश्यक बौद्धिक अहंकार और फ़ालतू हीनग्रंथि के दो पाटों के बीच मौलिक विचार विमर्श की संभावना पिस गई. और सारा परिदृश्य एक बौद्धिक मरुस्थल में तब्दील हुआ जहाँ सर्वहारा नारेबाज़ी और क्रांतिकारी posturing के झाड़ झंखाड़ के अतिरिक्त और कोई जीवन न बच सका.
पर भगवान बुद्ध कह गए हैं संसार में सब कुछ अस्थायी है. ज़मींदारी भी. आप ज़रा पीछे मुड़कर गहरी साँस लीजिए और ईमानदारी से बताइए – क्या आपको इसका इल्म था कि सत्तर वर्षों से आबाद, चमचमाती स्टील से बना सोवियत क़िला इस तरह ताश के पत्तों की तरह बिखर जाएगा?
जिस रूस में इसाइयत का नामोनिशान मिटा दिया गया था, पीढ़ियाँ बीत गई थीं जिन्हें धर्म के बारे में कुछ भी नहीं पता था, वहाँ इसाइयत इस तरह धड़धड़ा कर वापस आ जाएगी?
कुछ-कुछ यही खेल भारतीयता और ख़ास तौर पर हिन्दू विचार के साथ भारतवर्ष में हुआ है या हो रहा है.
बौद्धिक महंतों की कई पीढ़ियाँ गुज़रीं जिन्हें कभी किसी चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा था. अब मेरे जैसे मज़दूर डरते-डरते आतंक के साये से निकलने लगे और कठिन सवाल पूछने लग गए.
और बुद्धिजीवी को भाषण देने की आदत है, प्रशिक्षण भी है पर कभी कोई हमसे प्रश्न पूछेगा – यह ख़याल तो कभी दिमाग़ में आया ही नहीं था. यहाँ तो मामला यह था कि देखो मेरे पास सर्वज्ञान की पुड़िया है, मैं इसे प्रसाद की तरह बाटूँगा, तुम प्रसाद लो, भजन करो और मेरे गुण गाओ. पर हाय रे मार्क्स, इस ज़माने को क्या हुआ? मेरे सर्वज्ञान पर सवालिया निशान?
स्वाभाविक है कि बौद्धिक ज़मींदार खलबलाएं. कोई भी शख़्स जिसने और जिसके पुर्ज़ों ने (मैने कहना चाहा था – पुरखों ने; पर यह कम्प्यूटर कम्बख़्त भी ख़ालिस बुद्धिजीवी निकला, मेरा टाइप किया हुआ खारिज कर दिया) पीढ़ियों से राज किया हो, उससे मामूली मज़दूर ऐसे बेहूदा सवाल पूछें तो वह खलबलाएगा ही. स्वाभाविक है.
तो आप जो देख रहे हैं वह बौद्धिक खलबलाहट है. चैन नहीं है, दिल में ग़ुस्सा बहुत है. दिमाग़ गरम है. और जब दिमाग़ बहुत गरम हो जाता है तो वह बौद्धिकता की केंचुल फेंक कर गाली-गलौज पर उतर आता है.
आप जो “मोदी हिटलर है”, “मोदी ने CIA के साथ मिलकर EVM में हेराफेरी की” जैसे घनघोर साहित्यिक और बौद्धिक विमर्श देख सुन रहे हैं, या बगदादी और ओसामा का प्रशस्ति गान सुन रहे हैं, या “भारत तेरे टुकड़े होंगे, आज़ादी, आज़ादी” के नारे सुन रहे हैं, वे उसी बौद्धिक खलबलाहट और मानसिक रुग्णता की उपज हैं. आदमी जब पागल हो जाता है तो ऐसी ही हरकतें करता है. कभी-कभी आत्मघात भी कर लेता है.
पर ये हमारे प्यारे भाई-बहन हैं. हमारे ही तो हैं. इनके सिर पर करुणा की बर्फ़ रखिए, कोई जतन करिए कि इनका फूला हुआ खोपड़ा सिकुड़े, हो सके तो खोपड़े में साइकिल पम्प से थोड़ी ताज़ी हवा पम्प करिए. दिल के सूखे छुहाड़े पर थोड़ा शीतल जल छिड़किए.
आख़िर हमारा भी तो इन भाई बहनों के प्रति कुछ कर्तव्य बनता है. सोचिए, बनता है कि नहीं?