मेकिंग इंडिया गीतमाला : मेरे घर आना ज़िंदगी

ज़िंदगी के घर में जब भी झाँककर देखते हैं, तो आँगन में सुख मिट्टी में खेलता नज़र आता है. ममता उसे डाँट डपटकर घर के अंदर ले जाने की कोशिश करती है.

घर के अंदर शिकायतें मुखिया की कुर्सी पर बैठे हुए सुख के छोटे-छोटे पलों के अंदर आने का इंतज़ार कर रही होती है. और घर के अंधेरे कोने में उदासी घुटनों में मुँह छुपाए बैठी होती है. छत पर यौवन कभी कपड़े सुखाता हुआ, कभी पतंग उड़ाता हुआ, तो कभी किसी नई किताब की सुगंध को सिगरेट की तरह पीता हुआ नज़र आता है. और बीच-बीच में आसमान की विशालता को बाँहों में भरकर चूमकर भाग जाता है. और दुख क्यों कहीं दिखाई नहीं दे रहा?… पूरा घर ढूँढने में लगा हुआ है… ये क्या ये आईना किसने तोड़ दिया?

…..फिर जो भी उस आईने के टुकड़ों को झाँककर देखता है, उसे अपनी शक्ल की जगह दुख का चेहरा नज़र आने लगता है… फिर कहीं से उम्मीद दौड़कर आती है और सारे टुकड़ों को समेटकर फेंक देती है, ताकि वो किसी के पैरों में न चुभ जाए…

भारतीय संस्कृति और गृह व्यवस्था के संदर्भ में आपको जीवन शायद ऐसा ही देखने को मिले. हाँ, आधुनिकता टीवी सीरियल के बीच-बीच में आने वाले विज्ञापनों की तरह कभी-कभी मनोंरंजन के रूप में तो कभी विघ्न के रूप में आ जाती है.

मेरी तरह ऐसी सोच रखने वालों को आप कुएँ का मेंढक कह सकते हैं. ये बात अलग है कि मैं तो उन्हें भी कुएँ का मेंढक ही कहती हूँ, जो मोबाइल, कम्प्यूटर, इंटरनेट, रोबोट या रॉकेट की बात करते हैं. फर्क बस इतना है कि कुआँ अलग-अलग है, लेकिन उसमें रहने वाले मेंढक तो एक ही तरह के हैं. ये ब्रह्माण्ड इस तरह के अलग-अलग कुओं से भरा पड़ा है, जिसमें अपना-अपना कुआँ सभी को बड़ा लगता है. ये सब एक ही जगह पर बने हुए अलग-अलग कुएँ हैं, और वो इतने पास-पास बने हैं कि कोई भी मेंढक आराम से एक कुएँ से कूदकर दूसरे में जा सकता है. जो पुराने से कूदकर नए में जाता है, वो लौटकर यही बताता है कि नया कुआँ ही समन्दर है.

सच तो यह है कि उस विशालकाय समन्दर को आज तक किसी ने नहीं देखा. बस ऊपर आसमान दिखता है तो लगता है, इतना ही बड़ा होगा, हर कोई उसकी विशालता को अपनी-अपनी सोच के दायरे के हिसाब से नापता है. कभी आधुनिकता के नाम पर, कभी सफलता के नाम पर, कभी आध्यात्म के नाम पर, कभी इश्क और जुनून के नाम पर सबने अपने-अपने समन्दर की कल्पना की और उसे खोजने निकल पड़े. फिर रेगिस्तान में मरिचिका की तरह सबको अपने कल्पना का समन्दर दिखाई देने लगा और उस ओर जाते हुए विलुप्त हो गए….. कोई नहीं जानता कौन-सा समन्दर उन्हें निगल गया.

मेरे लिए ज़िंदगी के घर से बड़ा कोई समन्दर नहीं, जिसके आँगन में जब भी झाँककर देखते हैं, तो सुख मिट्टी में खेलता नज़र आता है. मैं उस घर में जब भी जाती हूँ, सुख, दुख, ममता, शिकायतें और उदासी के बीच विलुप्त हो जाती हूँ.

मेरे घर का सीधा सा इतना पता है
मेरे घर के आगे मोहब्बत लिखा है
न दस्तक ज़रूरी, न आवाज़ देना
में साँसों की रफ़्तार से जान लूंगी
हवाओं की खुशबू से पहचान लूंगी….

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