लेख की शुरुआत एक उपन्यास के अंत से करना चाहूंगी. उपन्यास का नाम है “आनंद मठ”. मुग़लों को खदेड़ने के बाद जब सत्यानन्द अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने की तैयारी की योजना बनाने लगते हैं तो चिकित्सक के रूप में सर्वोच्च सत्ता द्वारा भेजी गयी चेतना सत्यानन्द से कहती है –
सत्यानन्द आपका कार्य बस इतना ही था, अब आपकी भूमिका समाप्त होती है, अब आप चलिए हमारे साथ. क्योंकि मुग़लों के कारण जो भारत का पतन हुआ है उसके उत्थान के लिए कम से कम 200 साल तक अंग्रेजों का यहाँ पर शासन करना आवश्यक है.
सत्यानन्द की तरह पाठक वर्ग भी अचंभित होता है अस्तित्व की इस योजना पर. लेकिन बंकिमचन्द्र जैसे लेखक ही इस योजना को समझकर उसे उपन्यास में प्रस्तुत करने का दुस्साहस कर सकते हैं, वरना इस रहस्य को कितने लोग समझ पाएं कि हर युग की अपनी उत्थान की आवश्यकताएं होती है, और हर युग की अपनी गुलामी के कारणों की आवश्यकताएं भी.
मुग़लों से गुलामी के कारण हुए नुकसान की भरपायी हुई अंग्रेज़ों के आगमन से और उचित उत्थान के बाद जब अंग्रेज़ों के जाने की बारी आई तो आवश्यक था वामपंथियों की बौद्धिक कलम का कमाल.
हर युग के अपने सुपरिणाम के साथ कुछ दुष्परिणाम भी होते हैं. तो देश को 70 साल तक वामपंथियों की बौद्धिक कलम के साथ के बाद फिर आवश्यकता थी उनके द्वारा मचाए गए कीचड़ में अध्यात्म के कमल को फिर से खिलाना, अपनी जड़ों की ओर लौटना, सनातनी परम्पराओं के प्रति लोगों को जागरूक करना.
तो ऐसे में आवश्यकता पड़ी एक ऐसे राजयोगी की जो “वसुधैव कुटुम्बकम”के सिद्धांत का पालन करते हुए दुनिया में एक बार फिर भारत को विश्व गुरु की उपाधि दिलाए, और आवश्यकता पड़ने पर जिसके एक आह्वान पर प्रजा बिना कोई प्रश्न या शंका उठाए हर हर महादेव या जय श्री राम कहता हुआ लाठी भाला लेकर उसके पीछे आँख बंद करके चल पड़े, एक अटूट आस्था के साथ कि जिसे प्रजा ने चुना है वो कभी भी उसका अहित नहीं चाहेगा.
तो आज यदि मोदीजी “तुष्टिकरण” करते नज़र आ रहे हैं तो इसमें आपकी नज़र का दोष है. ये सैद्धांतिक स्तर की बात है. आपका मुख्य उद्देश्य राष्ट्रनीति के अनुसार होता है जिसका पालन मोदीजी कर रहे हैं, जिसमें कई बातें ऐसी भी होती है जो राजनीतिक स्तर पर उजागर नहीं की जाती. और राजनीतिक स्तर पर जिन योजनाओं का प्रकटीकरण होता है वो देश को सुचारू रूप से चलाने के लिए होता है. बाकी प्रजा के स्तर पर जो काम होते हैं वो उपरोक्त दोनों स्तर से भिन्न होते हैं.
इसे आप इस तरह से समझ सकते हैं कि 2014 से पहले अखबारों और MSM की भूमिका क्या रही है इससे कोई अनभिज्ञ नहीं है. जो भी नकारात्मक भूमिका उसने निभाई उसके तोड़ के लिए आज उभर कर आया है सोशल मीडिया, जिसका वर्तमान सरकार भरपूर प्रयोग कर रही है.
आज की आवश्यकता सिर्फ बौद्धिक कलम नहीं, जो अपनी क्लिष्ट साहित्यिक भाषा से आम प्रजा के बीच यूटोपिया बनकर खड़े हो जाए और वाहवाही लुटे. आज आवश्यकता है ऐसी कलमों की जो आम जनता के दिल तक पहुंचे उनमें अपने देश के लिए सकारात्मक लेखन के लिए तो प्रेरित करे ही साथ ही आवश्यकता पड़ने पर कलम छोड़ तलवार उठाने के लिए भी तत्पर रहे.
इसका सबसे नायाब उदाहरण है उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, जो आम जनता के बीच आम लोगों की तरह काम करते हैं, इसलिए उन्होंने अपने कार्यालय से सारे AC हटवा दिए, सारी विलासिता की चीज़ें हटवा दी और अपने सहयोगियों से कहा यदि आम जनता की समस्याओं का निराकरण करना है तो आम जनता जिन परिस्थितियों में रहती हैं उसमें रहकर उसे अनुभव करके ही किया जा सकता है.
कल ही तो योगी आदित्यनाथ का एक इंटरव्यू देख रही थी. उनके मुख्यमंत्री बनने के पहले के उनके बयानों पर उनको कटघरे में खड़ा किया जा रहा था. लेकिन मजाल कि वो अपने बयान से मुकर जाए. मोदीजी को अपना आदर्श बताते हुए सौम्य मुस्कान के साथ वो कहते हैं हम आज भी “सबका साथ सबका विकास” के सिद्धांत पर ही काम कर रहे हैं, लेकिन फिर भी “वो” नहीं माने तो ठोक कर रख देंगे. अब यदि आप कहते हैं कि उत्तर प्रेदश में योगी नहीं किसी भोगी को मुख्यमंत्री बनाना था तो बताइए दे सकता था सरे आम कैमरे के सामने यह बयान?
ठीक वैसे ही जब सोशल मीडिया पर कोई राष्ट्रवादी जब कोई राष्ट्रहित के लिए लेख लिखता है तो उसकी भाषा से अधिक जिस भाव से लेख लिखा गया है उसकी ऊर्जा पाठक वर्ग को संप्रेषित होती है, जो एक से दूसरे तक पहुँचने पर एकत्रित होकर एक राष्ट्र ऊर्जा में परिवर्तित होती है. और यही राष्ट्र ऊर्जा है जो तीन साल के भीतर ही “भक्तों” की एक ऐसी विशाल सेना खड़ी कर देती है. अब ऐसी सेना बुद्धिजीवियों की कलम से निकली अंग्रेजी फ्रेज़ेज़ की चाशनी में डूबी क्लिष्ट हिन्दी से प्रभावित तो होगी लेकिन आवश्यकता पड़ने पर उनके लहू में वो जोश उत्पन्न नहीं कर सकेगी जो कश्मीर के NIIT के विद्यार्थियों में कर गयी थी.
और आप कहेंगे क्या आवश्यकता है ऐसे जोश की, तो बता दूं ये इस समय की आवश्यकता है कि धर्मपरायण शक्तियों को एक तनाव की अवस्था में ऊंचे स्तर पर तैयार रखें. और इसके लिए ही प्रजा के स्तर पर राष्ट्रीय ऊर्जा एकत्रित की जा रही है.
ये वही राष्ट्र ऊर्जा की प्रेरणा थी कि वो अपनी जान पर खेलकर तिरंगा लहरा आते हैं. ये वही राष्ट्र ऊर्जा थी जो बुद्धिजीवियों की शांत रहने की नसीहत को दरकिनार कर उन महिलाओं को प्रेरित करती है, जो अपने बच्चों को घर पर छोड़ झुण्ड बनाकर बस में सवार हो जाती हैं, उन बच्चों के सर पर हाथ रखने के लिए.. उन्हें इस बात की शाबाशी देने के लिए कि आज भारत माँ ही नहीं देश की हर माँ को तुम पर गर्व है और इस बात का विश्वास है कि ज़रुरत पड़ने पर तुम लोग किताबें छोड़कर देश के लिए जान की बाजी लगा सकते हो.
आप कहेंगे क्या फायदा हुआ उन सबका… फायदा यह हुआ है कि उन अलगाववादियों को यह सन्देश प्रेषित हो गया कि अब हम सिर्फ सर झुकाकर तुम्हारे पत्थरों को जवानों पर उछालते हुए नहीं देखेंगे, जवाब भी देंगे.
इसलिए आज हमें बुद्धिजीवियों की कलम से अधिक भगत सिंह जैसे वीरों की ज़रूरत है, आज हमें कलम की कारीगरी दिखाने वाले पत्रकारों से अधिक जय प्रकाश नारायण जैसे लोकनायक की आवश्यकता है. जिन्होंने कहा था – “सम्पूर्ण क्रांति में सात क्रांतियाँ शामिल है— राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक व आध्यात्मिक क्रांति. इन सातों क्रांतियों को मिलाकर सम्पूर्ण क्रान्ति होती है.”
लेकिन जैसा कि ऊपर कहा हर युग की अपनी आवश्यकताएं होती हैं, तो इन सात क्रांतियों का भी अपना अपना अनुपात होता है. और पिछली सरकारों ने इसके अनुपात में गड़बड़ी करके 70 साल तक बौद्धिक कलमों के हाथ खुले छोड़ दिए. उनकी “अति”बुद्धिमता ने देश का राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक और आध्यात्मिक रूप से जो शोषण किया, उसका ही परिणाम है ये कि आज उन बुद्धजीवियों को उनकी बौद्धिकता के लिए प्रशंसा नहीं मिल रही बल्कि “बुद्धिजीवी” शब्द एक गाली के रूप में प्रयुक्त होता सा भास होता है.
बुद्धिजीवियों से कोई बैर नहीं, सोशल मीडिया पर कलम चलाने के लिए उनकी भी आवश्यकता है. लेकिन हम जानते हैं आवश्यकता पड़ने पर सबसे पहले इनकी कलम ही चूहे की तरह बिल में घुस जाएँगी. तब हमारे ये शेर, चीते और लकड़बग्घे जैसे “भक्त” ही काम आएँगे. इसलिए आज हमें “सिर्फ” कलम का कमाल दिखाने वाले “बुद्धिजीवियों” की नहीं, NIIT के साहसी विद्यार्थियों की आवश्यकता है. अजित सिंह जैसे फक्कड़ और साहसी आदमी की ज़रूरत है जिसने जब कैराना की दशहत के विरोध में लिखना शुरू किया तो विरोधियों ने कहा सिर्फ कलम चलाने से कुछ नहीं होता, हिम्मत है तो वहां जाकर दिखाइये और वो अपना झोला उठाए अकेले कैराना पहुँच गए थे..
हमें सच में ऐसे ही निर्भीक लोगों की ज़रूरत है जो सिर्फ एक “चलो” के आह्वान पर अपना झोला उठाये मोदीजी के पीछे चलने को तत्पर हो… अब ये ना पूछना इस झोले में क्या लेके जा रहे हैं, क्योंकि सचमुच उसमें बहुत कुछ काम की चीज़ें होंगी लेकिन यकीनन बौद्धिक वमन करने वालों की कलम तो नहीं ही होगी.
आप तो बौद्धिक वमन भी करेंगे तो उसे अपनी फेसबुक वाल पर अंग्रेज़ी एटिकेट्स और सोफिस्टीकेशन के साथ सजाकर प्रस्तुत करेंगे. हम तो ठहरे बीहड़ आदिम सनातनी. दस को मारने के बाद डकार भी लेंगे तो दुनिया की परवाह किये बिना पूरी आवाज़ के साथ लेंगे.
ये तथाकथित बुद्धिजीवी बहुत अच्छे से जानते हैं इस बात को कि इन 70 सालों में इनकी कलमों ने देश के युवाओं में एक हीनता के भाव को प्रगाढ़ कर दिया है. उनके सामने अंग्रेज़ी के दो चार शब्द वाक्य या फ्रेज़ बोल लिख दो तो वो आपको बुद्धिमान और खुद को हीन समझने लगते हैं… इसलिए अबकी बार हमारी कलम इन्हें इस हीनता के भाव से उबारने के लिए चलेगी, उन्हें ये बताने के लिए चलेगी कि ज्ञान केवल अंग्रेज़ों द्वारा लिखी किताबों में नहीं, गोलवलकरजी की “विचार नवनीत” और दीनदयाल उपाध्याय की “एकात्म मानववाद” में भी मिलेगा, गुरुदत्त के “परित्राणाय साधूनाम” और राजीव मल्होत्रा की “भारत विखंडन” में भी मिलेगा.
समय की आवश्यकता को समझिये विद्वानों की आवश्यकता नहीं ऐसा नहीं कहती. याद रखिये राजसी ठाट-बाट से दूर रहनेवाले ‘कौटिल्य’ चाणक्य चाहे कितने ही विद्वान हो, कितनी ही नीतियाँ दी हो लेकिन युद्ध उन्होंने चन्द्रगुप्त के लिए सेना बनाकर ही जीता था.