आडवाणी आज राजनीति शास्त्र का नहीं, समाज शास्त्र का विषय हैं

लालकृष्ण आडवाणी पर सारे गाने चिपका लिए हों तो सुनिये. मत हंसिये आडवाणी पर.. आडवाणी आज केवल आडवाणी नहीं हैं… वो आज के भारतीय समाज़ में “किसी भी घर के एक बूढ़े हो चुके ठूंठ वृक्ष के” के काट दिए जाने के प्रतीक हैं.

आडवाणी को भाजपा, संघ, कांग्रेस से मत देखिये अब. उनकी गयी वो उम्र जब वो राजनीति में थे. आज आडवाणी हमारे समाज के “हर घर के कोने में सोये बीमार बूढ़े” के प्रतिनिधि हैं.

क्यों हँसते हैं आप उन पर? आडवाणी के साथ क्या नया हो गया है जो आप अचंभित हैं और अचंभे में गीत खोज खोज चिपका रहे हैं. आडवाणी कौन हैं अब? आडवाणी अब बस केवल “एक बूढ़ा आदमी” है. और एक बूढ़ा क्या होता है हमारे लिए, ये अपने घर समाज में झांक जरा देख लें हम.

ये तो युवा देश है, जवानी में बौराया हुआ मतवाला देश. और ऐसे देश में हमने आपने आज तक अपने घर समाज के बूढ़े को जैसा जो जो दिया है, आडवाणी जी को को मोदी जी ने वही दिया है, कुछ नया नहीं है. आडवाणी भी अपने बुजुर्ग को यही देकर आये थे. बूढ़ा मने कूड़ा… यही दर्शन है हमारे समाज का और आडवाणी इससे परे कैसे हो जायेंगे?

आडवाणी तो भारतीय समाज में हर बुजुर्गों की विडम्बनापूर्ण नियति के ही सिलसिले का एक और नाम हैं. आडवाणी आज राजनीति शास्त्र नहीं बल्कि समाज शास्त्र का विषय हैं. आप अपने अपने घर को याद करिये, अपने पड़ोस को याद करिये.. याद करिये तो कि किस घर में आडवाणी के उम्र का व्यक्ति किसी काम या निर्णय लेने के भूमिका में है.

आपने दी है क्या अपने तिजोरी की चाबी किसी 90 बरस के अपने दादा या नाना को, जो आप मोदी जी से आडवाणी जी को दे देने की अपेक्षा रखे थे? आपके घर में किसकी चलती है? आपके 80 बरस वाले दादा -नाना की या आपके जैसे कमाऊ जवान पूतों की?

याद करिये जब खांसता हुआ बूढ़ा खटिया पर लेटे लेते पानी मांगता है और आप ऑफिस जाने या चबूतरा पर तास खेलने जाने की हड़बड़ी में रहते हैं इसलिए एक ग्लास पानी तक दे देना समय की बलि देने जैसा समझते हैं. याद करिये जब 85 बरस का कोई बुजुर्ग बेड पर ही टॉयलेट कर देता है तो उस वक़्त आप भिनभिनाते बड़बड़ाते हुए दुआ दे रहे होते हैं कि, इससे अच्छा तो उठा लेते भगवान इनको, क्या कष्ट भोग रहे जी के ई.

85-90 बरस के लोगों के साथ ये करता है हमारा घर और समाज.. और जो अपनी जिजीविषा से आडवाणी की तरह खड़ा रह जाता है उस पर अपना सेंस ऑफ ह्यूमर पेल रहे हैं हम. आडवाणी की नियति, देश के हर बुजुर्ग की नियति है. इसके इस पक्ष को ही पकड़ के अब आडवाणी को विदा दीजिये.

जो बात आपके घर खटिया पर लेटे, जगनारायण बाबू, जगरनाथ बाबू, अवधनारायण बाबू,जैसे घोलटते, खांसते बीमार बुजुर्ग आपको अपनी उपेक्षा की पीड़ा बोल के नहीं समझा सकते,और न हम कभी उसे सुनते, उसे आडवाणी जी की नियति ने बड़े आसानी से समझा दिया है. आडवाणी जी के जीवन ने साफ़ संकेत दिया है “जवानी ख़तम तो कहानी ख़तम”. कम से कम ख़तम कहानी वाले बुजुर्गों का घर में जरूर सम्मान करना,उन्हें जाती हुई अंतिम बेला में थोड़ा स्नेह देना, थोड़ा समय देना.

आप आडवाणी के राजनितिक उपलब्धि या राजनितिक कलंक पर उन्हें जो कहना है कहिये, विश्लेषण करिये, कोसिए, बददुआ दीजिये पर निवेदन है कि उनकी ढलती उम्र की तस्वीर लगा कर मज़ा मत लीजिये क्योंकि आपके हमारे घर के हर बूढ़े की इस उम्र में यही दुर्गति होती है, यही तस्वीर होती है.. वो भी यही गाते मरते हैं कि अच्छा चलता हूँ दुआओं में याद रखना. जय हो.

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