इतना सन्नाटा क्यों है भाई!

केजरीवाल के किले को कभी न कभी ढहना ही था. लेनिन-स्टालिन जैसे तमाम कोम्युनिस्टों की मूर्तियों को जनता ने ढहा दिया. उसी कोम्युनिस्टी-कपट की काली मिट्टी पर बना केजरीवाली-किला कब तक टिकता ? थॉमस सोंवेल कहते हैं कि अपने तमाम रूपों में ये वाम-विचारधाराएं इसी पूर्वधारणा और अहंकार पर बनी होती हैं कि कुछ मुट्ठी भर लोग ही बुद्धिमान हैं और बाकी की पूरी जनता मूर्ख और कमतर.

जनता को मूर्ख समझने का ये वही अहंकार था कि हिन्दी के प्रथम स्वर-व्यंजन से निर्मित यह नाम ‘अ’रविन्द ‘क’जरीवाल दरअसल ‘अ’हंकार और ‘क’पट की भी कई कलाओं में प्रथम होने का दुस्साहस करता चला गया. अपने ही मंत्री से घूस लेने का आरोप, सैकड़ों एकड़ ज़मीन की कथित दलाली, फर्जी कंपनियों से करोड़ों की रकम उगाही, जनता के पैसों से अपने व्यक्तिगत खर्चे और प्रचार, या अपने हर राजनैतिक प्रतिद्वंदी को ‘भ्रष्टाचारी’ बताना – शायद ही कोई ऐसी मक्कारी हो जहाँ केजरीवाल ने हाथ नहीं आजमाया. बकौल दोस्तोयेव्स्की : मक्कारी जितनी अधिक होती है, नहीं पकडे जाने का विश्वास भी उतना ही अधिक होता है.

योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण, और कुमार विश्वास समेत कई सहकर्मियों को इस कुटिल-कपटी ने अपने काले मंसूबों के लिए पलक झपकते दरकिनार कर दिया. ऐसा कोई सगा नहीं जिसको इसने ठगा नहीं. जनता को लेकिन लम्बे समय तक ठगना संभव नहीं. दिल्ली के ठग के अंत का ये आरम्भ दरअसल अन्ना हजारे के वैकल्पिक-राजनीतिक-प्रयोग के आरम्भ का अंत भी है.

शरलोक होम्स ने शातिर अपराधी प्रोफ़ेसर मोरिआट्री को अपराध जगत का ‘नेपोलियन’ कहा था. शरलोक होम्स अगर कथाओं से बाहर आज यहाँ होते तो निःसंदेह उन्होंने केजरीवाल को मक्कारी की दुनिया का ‘नेपोलियन’ कहा होता. मक्कारी को लेकिन अंत में मरना ही होता है. “इट्स वेरी एलेमेन्टरी, माय डिअर वाटसन !”

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