बुज़ुर्गवार पहचान ही नहीं पा रहे कि पीड़ित कौन है और शोषक कौन

भारत में टेप रिकॉर्डर जैसी चीज़ भी कोई आम चीज़ नहीं होती थी. 1980 के शुरुआती दौर का इंदिरा गाँधी युग का टैक्स का हिसाब कुछ ऐसा था कि आम आदमी टेप रिकॉर्डर जैसी चीज़ के बारे में सोच भी नहीं सकता था. काफी बाद में जब राजीव काल में विदेशों से सामान आने लगा तो वो स्टेटस सिंबल भी होता और साथ ही आम आदमी को पता भी चला कि दुनियां कहाँ से कहाँ पहुँच चुकी है.

ऐसे ही दौर में मेरे दादाजी की पोस्टिंग जब एक नेपाल सीमा वाले इलाके में हुई तो दादी को पहली बार टेप रिकॉर्डर दिखा था. दादी अब तक टेप रिकॉर्डर देखने का खुद का किस्सा बड़े चाव से सुनाती है. दादी का ख़याल था कि अगर उनके पास भी टेप रिकॉर्डर होता (जिस पड़ोसी के घर देखा था उन जैसा) तो वो भी पूरे दिन रामायण सुन पाती.

काफी बाद में जब टैक्स के कानून बदले और नेपाल सीमा से सस्ता चीनी सामान भी आने लगा, वैसे ही ज़माने में कभी बरसों बाद हमारे घर भी टेप रिकॉर्डर आया. जैसे जैसे टेप के कैसेट का प्रचलन बढ़ा, फ़िल्मी गानों के कैसेट भी हर जगह उपलब्ध होने लगे. उस दौर में कैसेट की अलग दुकान होती थी, समय के साथ वो दुकानें ख़त्म हो गई और उनकी जगह भी मोबाइल रिपेयर शॉप ने ले ली.

नब्बे के दशक में टेप रिकॉर्डर और कैसेट का चलन इतना था कि कई बार लोग फिल्म के एक-दो गाने ही पसंद होने पर पूरा कैसेट नहीं खरीदते थे. उसके बदले वो ब्लैंक कैसेट लेकर उस पर गाने रिकॉर्ड करवा लेते थे. इसी समय में फ़िल्मी गानों की पैरोडी पर भजन भी बनने लगे थे.

अब जो मंदिर में भजन बजता उसके बोल तो भजन वाले होते, लेकिन संगीत और धुन होती थी किसी प्रचलित फ़िल्मी गाने वाली. ऐसे में दादी कंफ्यूज हो जाया करती थी. ज्यादातर बार जब उन्हें लगता कि हम लोगों ने कोई भजन बजाने जैसा अच्छा काम किया है, तो थोड़ी ही देर बाद पता चलता कि ये तो कुछ और ही है!

दूसरी तरफ हम लोगों की समस्या दूसरी थी. हम लोग बैकग्राउंड म्यूजिक से बड़ी आसानी से पहचान लेते थे कि ये तो असली म्यूजिक है, मतलब फ़िल्मी गाना ही है. पैरोडी में उतने अच्छे किस्म का संगीत, बढ़िया रिकॉर्डिंग, महंगे वाद्ययंत्र होने का सवाल ही पैदा नहीं होता था. हम लोग अक्सर सोचा करते दादी एक बार में कैसे नहीं पहचान पाती कि असली कौन सा है और नकली कौन ?

अब एक सफ़ेद दाढ़ी वाले सज्जन हैं जो पैंसठ साल के, अर्थात वयोवृद्ध हो चले हैं. पता नहीं क्यों उन्हें समझ नहीं आ रहा कि ग्रामीण के लिए एक गाय की चोरी की एफ.आई.आर. करवाना शहरी के मोबाइल चोरी का एफ.आई.आर. दर्ज करवाने से ज्यादा मुश्किल है.

गाय चोरी करने आये लोग, पकड़े जाने जैसी स्थिति में, अक्सर किसान को गोली मार कर भागते हैं, इसलिए कस्बों-देहातों के लोग गौ-तस्करों के प्रति पहले ही नाराजगी से भरे पड़े हैं. गाय-बैल काट कर खा जाने पर दिखाने के लिए कोई सबूत नहीं बचता कि किसी गाय चुरा कर खा ली गई है, मतलब मुक़दमे का भी नतीजा सिफर ही होगा, ये भी लोग जानते हैं.

तस्करों के पुलिसकर्मियों को कुचलने, रोकने वालों को पीट देने की घटनाएँ भी आम हैं. फिर भी बुजुर्गवार पहचान नहीं पा रहे कि पीड़ित पक्ष कौन है, और शोषक कौन?

कभी-कभी तो लगता है कि झोला उठा कर निकल ही जाते किसी दिन सचमुच तो क्या होता? रोकने की कोशिश के बदले कहीं लोग चैन की सांस तो नहीं लेने लगेंगे ना!

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