कबीर भी कैसे समझ आएंगे ध्यान के बिना

अध्यात्म में कोई रहस्यवाद असल में होता ही नहीं है. रहस्यवाद वो कह सकते हैं या कहते ही हैं जिनका परिचय अध्यात्म जगत से नहीं होता है.

अध्यात्म जगत के शीर्ष मार्तण्ड प्रमाण केवल सामाजिक चेतना के उन गुणों को प्रमाणित रूप में जीते आये हैं जिनसे कुछ सीख ली जा सके. बाकी और कोई तात्पर्य नहीं बनता. मानवता का वही प्रमाण है. इसके बिना कोई बोलता है तो वो अभावों के साथ बोलता है. किसी को भौतिक सफलता प्राप्त है तो उसका प्रलाप और भी जड़ होता है. इसको जान लेना चाहिए. एक साधक अच्छे से समझ जाता है.

दूसरा पक्ष है सो कॉल्ड चमत्कार का. ये थोड़ा अजीब का मामला है. जैसा कि पहले लिख भी चुका हूँ, चमत्कार की तरह दिखने वाली चीज दो तरह की हैं. एक तो घटना के सुलझाने में एक्सिलरेशन हो जाता है. दूसरा है संकल्प मात्र से घटना का रुख मोड़ देना. ऐसा होते हुए भी, ये जान लेना उचित है कि सबमें परम तत्व को देखने वाला ज्ञानी कभी किसी के पंगे में बेकार में उंगली नहीं करता. जब तक सामने सामने न आ जाये, तब तक कुछ नहीं होता. इसका विस्तार और भी कलाओं के साथ है जैसे सूर्य विज्ञान के प्रत्यक्ष उदाहरण स्फटिक लेंस की सहायता से सूर्य रश्मियों के साथ स्वामी विशुद्धानंद जी सरस्वती ने सबको दिखलाए थे.

बात लंबी न हो, संक्षेप में इतना कहा जा सकता है कि गुरु परंपरा का आधान लिए भारतवर्ष में इसका और स्थानों से आगे काफी काफी आगे विकास हो रखा है और परंपरा रूप में चेतन जीवित भी है. सबमें परमात्मा देखने वालों से राजनीतिक पक्षपात की अपेक्षा करना अनुचित होगा. ये उसी तर्क का जवाब है कि चुटकी भर में प्रॉब्लम्स खत्म क्यों नहीं कर देते ? इसका उत्तर स्पेस है. वहां अतिक्रमण नहीं ही होता है.

इसमें जोड़ा जा सकता है कि कुछ मामलों में अवश्य ही सहायता हो जाती है, उसके अलग अलग रूप हैं. समष्टि के लाभ हेतु वो प्रयोजन रहता है. दतिया वाले स्वामी जी का उदाहरण है जैसे.

इतना मान लीजिये की किताबी फिलोसोफी से कुछ नहीं होता है, बौद्धिक विलास के अतिरिक्त, ये साधना का क्षेत्र निश्चित रूप से है, जहां क्रिया और भाव का अनूठा ही संगम है और अत्यंत चित्ताकर्षक है. इसके आनन्द का बखान कई तरीको से कई साधुजन कर गए हैं. मन में आया तो लिखना हो गया. ध्यान के बिना कबीर भी कैसे समझ आएंगे.

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