“यह तथाकथित जगत जादूगरी जैसा या चित्र-कृति जैसा भासता है. सुखी होने के लिए उसे वैसा ही देखो.‘’
अगर तुम दुःखी हो तो इसलिए कि तुमने जगत को बहुत गंभीरता से लिया है. और सुखी होने का कोई उपाय मत खोजो, सिर्फ अपनी दृष्टि को बदलो. गंभीर चित्त से तुम सुखी नहीं हो सकते. उत्सव मनाने वाला चित्त ही सुखी हो सकता है. इस पूरे जीवन को एक नाटक, एक कहानी की तरह लो… ऐसा ही है. और अगर तुम उसे इस भांति ले सके तो तुम दुःखी नहीं होगे. दुःख अति गंभीरता का परिणाम है.
सात दिन के लिए यह प्रयोग करो. सात दिन तक एक ही चीज स्मरण रखो कि सारा जगत नाटक है. और तुम वही नहीं रहोगे जो अभी हो. सिर्फ सात दिन के लिए प्रयोग करो. तुम्हारा कुछ खो नहीं जाएगा, क्योंकि तुम्हारे पास खोने के लिए भी तो कुछ चाहिए. तुम प्रयोग कर सकते हो. सात दिन के लिए सब कुछ नाटक समझो, तमाशा समझो.
इन सात दिनों में तुम्हें तुम्हारे बुद्ध स्वभाव की, तुम्हारी आंतरिक पवित्रता की अनेक झलकें मिलेंगी. और इस झलक के मिलने के बाद तुम फिर वही नहीं रहोगे जो हो. तब तुम सुखी रहोगे.
और तुम सोच भी नहीं सकते कि यह सुख किस तरह का होगा. क्योंकि तुमने कोई सुख नहीं जाना. तुमने सिर्फ दुःख की कम-अधिक मात्राएं जानी हैं. कभी तुम ज्यादा दुःखी थे, और कभी कम. तुम नहीं जानते हो कि सुख क्या है. तुम उसे नहीं जान सकते हो.
जब तुम्हारी जगत की धारणा ऐसी है कि तुम उसे बहुत गंभीरता से लेते हो तो तुम नहीं जान सकते कि सुख क्या है. सुख भी तभी घटित होता है जब तुम्हारी यह धारणा दृढ़ होती है कि यह जगत केवल एक लीला है.
इस विधि को प्रयोग में लाओ और हर चीज़ को उत्सव की तरह लो, हर चीज़ को उत्सव मनाने के भाव से करो. ऐसा समझो कि यह नाटक है. कोई असली चीज़ नहीं है.
अगर अपने संबंधों को खेल बना लो… बेशक खेल के नियम हैं; खेल के लिए नियम जरूरी हैं. विवाह नियम है, तलाक नियम है. उनके बारे में गंभीर मत होओ. वे नियम हैं. लेकिन उन्हें गंभीरता से मत लो फिर देखो कि कैसे तत्काल तुम्हारे जीवन का गुणधर्म बदल जाता है.
आज रात अपने घर जाओ और अपनी पत्नी या पति या बच्चों के साथ ऐसे व्यवहार करो जैसे कि तुम किसी नाटक में भूमिका निभा रहे हो. और फिर उसका सौंदर्य देखो…
अगर तुम भूमिका निभा रहे हो तो तुम उसमें कुशल होने की कोशिश करोगे, लेकिन उद्विग्न नहीं होगे. उसकी कोई जरूरत नहीं है. तुम अपनी भूमिका निभा कर सोने चले जाओगे. लेकिन स्मरण रहे कि यह अभिनय है. और सात दिन तक इसका सतत ख्याल रखे. तब तुम्हें सुख उपलब्ध होगा. और जब तुम जान लोगे कि क्या सुख है तो फिर दुःख में गिरने की जरूरत नहीं रही. क्योंकि यह तुम्हारा ही चुनाव है.
तुम दुःखी हो, क्योंकि तुमने जीवन के प्रति गलत दृष्टि चुनी है. तुम सुखी हो सकते हो, अगर दृष्टि सम्यक हो जाए. बुद्ध सम्यक दृष्टि को बहुत महत्व देते हैं. वे सम्यक दृष्टि को ही आधार बनाते हैं, बुनियाद बनाते हैं. सम्यक दृष्टि क्या है? उसकी कसौटी क्या है ?
मेरे देखे कसौटी यह है: ‘’जो दृष्टि सुखी करे वह सम्यक दृष्टि है. और जो दृष्टि तुम्हें दुखी पीड़ित बनाए वह असम्यक दृष्टि है. और कसौटी बाह्य नहीं है. आंतरिक है. और कसौटी तुम्हारा सुख है.”
– ओशो