वह दीने-हिजाजी का बेबाक बेड़ा,
निशां जिसका अक्साए-आलम में पहुँचा
मजाहम हुआ कोई खतरा न जिसका,
न अम्मां में ठिठका, न कुल्जम में झिझका
किये पै सिपर जिसने सातों समंदर
वह डूबा दहाने में गंगा के आकर
अर्थात् ‘अरब देश का वह निडर बेड़ा, जिसकी ध्वजा विश्व भर में फहरा चुकी थी, किसी प्रकार का भय जिसका मार्ग न रोक सका था, जो अरब और बलूचिस्तान की मध्य वाली अम्मान की खाड़ी में भी नहीं रुका था और लाल सागर में भी नहीं झिझका था, जिसने सातों समंदर अपनी ढाल के नीचे कर लिये थे, वह श्रीगंगा जी के दहाने में आकर डूब गया था.’
मौलाना अल्ताफ हाली की इन पंक्तियों में सुधार की आवश्यकता है क्योंकि हिजाज का वो दीनी बेड़ा गंगा तक आने से काफी पहले ही डूब गया था. फिर भी हाली की ये पंक्तियाँ उन इतिहासकारों के मुंह पर तमाचा है जो ये कहते हैं कि मुहम्मद बिन कासिम आया और पूरा भारत किसी बुजदिल झुण्ड की तरह उसके अधीन होते चले गये. उनकी दलील ये है कि बिन कासिम ने राजा दाहिर को पराजित कर दिया था माने सारे भारत को विजित कर लिया था. (राजा दाहिर अपनी बौद्ध प्रजा के विश्वासघात से पराजित हुए थे)
ये फर्ज़ी इतिहास लेखक बड़ी चालाकी से हमारे तीन सौ साल के प्रतिरोध को छिपा लेते हैं और ये नहीं बताते हैं कि उसके बाद राजपूत शासक बप्पा रावल ने कैसे अरब से आये उन दुष्टों को पुनः उस ओर धकेल दिया था और हिंदुत्व की विजय पताका उसके बाद लगभग ढाई सौ वर्षों तक हिन्दुकुश पर्वत के आगे तक फहराती रही थी. जिस सिंध को बिन कासिम ने हमसे छीना भी था उसे भी हमने केवल पच्चीस साल में ही वापस ले लिया था. लगभग तीन सौ सालों में अरब सिर्फ मकरान के रूप में छोटे से हिस्से को जीत पाये थे.
शेष भारत छोड़ दीजिये, अरब टिड्डी दल को तो अकेले हमारे सिंध ने 229 साल तक वहीं रोके रखा जबकि सिंध का सामना उन मज़हबी उन्मादियों से था जिन्होंने बग़दाद से लेकर भूमध्य सागर और अफ्रीका से लेकर स्पेन तथा पुर्तगाल तक को अत्यंत अल्प समय में अपने उन्माद में रौंद डाला था पर सिंध के शूरवीरों के सामने इन अरबी जिहादी दलों की शक्ति का हाल ये था कि देश में कोई गंभीरता से इनका संज्ञान तक लेने को तैयार नहीं था.
सब जानते थे कि भारत भूमि रक्षण का दायित्व सिंध और राजस्थान के राजपूत बखूबी निभायेंगे और टिड्डी जिहादियों को मसल डालेंगे. अरब का ये उन्मादी झुण्ड जब सिंध में पिट गया तो उसने सौराष्ट्र और उत्तर दिशा से भारत में घुसने की कोशिश की पर वहां भी उसे मार खाकर वापस जाना पड़ा.
अफ़सोस कि हिन्दू और सिंध का ये प्रतिशोध स्थाई नहीं रह सका. शत्रुओं को दुर्बल समझने और उनको लगातार क्षमादान देने की उदार नीति फिर हमारी अवनति का कारण बनी.
अपने संततियों को सिंध के 229 साल के प्रतिशोध की दास्तान ज़रूर सुनाइये. उनको ये भी बताइए कि कभी भी हमारे पूर्वजों ने सर झुका कर दासता स्वीकार नहीं की, हमारा हिन्दू इतिहास अनवरत पराजयों का नहीं बल्कि प्रतिशोध का इतिहास है जिसमें सिंध की गाथा सबसे स्वर्णिम है और हमारे लिये नए संघर्ष हेतु पाथेय है.