फिल्म समीक्षक होने के नाते मैं ज्यादातर फ़िल्में सस्ते एकल थिएटर में देखना पसंद करता हूं. कारण इन थिएटरों में आने वाला दर्शक बाहर आकर अपनी प्रतिक्रिया ‘ज़ोर’ से बेबाक होकर देता है जबकि मॉल में सुसभ्य दर्शक बिना कुछ कहे लिफ्ट में जाकर खड़े हो जाते हैं.
जग्गा जासूस मैंने एकल सिनेमा में देखी. बाहर आते समय एक दर्शक प्रतिक्रिया देने के लिए मचल रहा था, उसने कहा ‘ ये क्या बनाकर ढेर कर दिया है, न बच्चों के काम का न बड़ों के’.
जी हाँ, जग्गा जासूस के लिए सबसे सटीक रिव्यू इंदौर के ‘महेंद्र जादौन’ ने दिया है. ये फिल्म किसी के काम की नहीं है. न बड़ों के न बच्चों के. मुझे दुःख इस बात का भी है कि एक बेहतरीन पटकथा निर्देशक की बेवकूफाना रचनात्मकता की भेंट चढ़ गई. इस कहानी को उसके बहाव के अनुरूप बनाया जाता तो निश्चित रूप से रणबीर कपूर के लिए कमबैक फिल्म साबित हो सकती थी.
कोलकाता का प्रोफेसर बादल बागची का कनेक्शन 1995 में वेस्ट बंगाल के पुरुलिया में गिराए गए हथियारों से माना जा रहा है. इस कारण वह छुपता फिर रहा है. वह जग्गा के हर जन्मदिन पर वीडियो कैसेट भेजता है.
एक दिन प्रोफेसर गायब हो जाता है. जग्गा को वीडियो कैसेट नहीं मिलती. उसका ये सफर जग्गा से जासूस बनने का है. अपने पिता को खोज निकालने का है जो उसे शेविंग से लेकर गुगली बॉलिंग करने का तरीके वीडियो में बताया करते थे.
कहानी को बहुत स्मूदली परदे पर उतारा जा सकता था लेकिन उफ़… निर्देशक अनुराग बासु की जिद. जिद इस बात की है कि ‘कैप्टन ऑफ़ द शिप’ मैं ही बनूं. बर्फी भाई आप कब समझेंगे कि हर फिल्म ‘निर्देशक की फिल्म’ नहीं हो सकती.
सस्पेंस/ थ्रिलर/ पज़ल श्रेणी की फिल्मों का ताना-बाना बड़ी सावधानी से बुनना पड़ता है. कहानी कहने के ढंग और एडिटिंग पर बहुत कुछ निर्भर होता है. आपको कहानी का भंवरजाल आसानी से दर्शक को समझाना होता है.
ऐसी फिल्मो में ‘अब्बास-मुस्तान’ अग्रणी माने जाते हैं. जग्गा जासूस को कुछ ऐसे ही ट्रीटमेंट की दरकार थी. अनुराग ने कहानी में अपना विशेष चटखारा लगाने के चक्कर में अच्छी-भली डिश ही बिगाड़ दी.
क्या ज़रूरत थी रणबीर कपूर के किरदार को हकला बनाने की. ऊपर से तुर्रा ये कि वो गाते हुए ही बोलता है. इसको कहते हैं दही में अचार घोलने का काम. निर्देशन में इतनी खामियां है कि गिनते-गिनते आप थक जाएंगे.
ऐसी कहानियां तर्क मांगती है हुज़ूर जो इस फिल्म में सिरे से नदारद है. अब लीजिये मणिपुर में जो डाकिया इनको कैसेट देने आता है, उसका ‘हैप्पी बर्थ डे’ का अभिजात्य उच्चारण सुनकर लगता है कि कहानी पर ‘बर्फी’ ने गहराई से काम नहीं किया. दो सिर वाला खलनायक हमको आखिर तक देखने को नहीं मिला क्योकि बाप-बेटे के मिलन पर ही बर्फी भैया द एंड का बोर्ड लगा देते हैं.
ऐसी असंख्य गलतियों ने कहानी को अविश्वसनीय बनाया और फिल्म को बॉक्स ऑफिस पर पहले दिन ही धराशायी कर दिया.
नई पीढ़ी के फिल्मकारों को ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए. इससे उन्हें सबक मिलेगा कि ‘पजामा को पजामा ही बने रहने देना चाहिए, बरमूडा बनाने की जिद ले डूबती है’.
हाँ, मुझे ‘शॉट डिजाल्विंग सीन’ की नई तकनीक अच्छी लगी. इसके अलावा लोकेशन और सिनेमेटोग्राफी बहुत उम्दा है. कैमरा वर्क बहुत बढ़िया है. गाने अच्छे थे लेकिन फिल्मांकन के लिए वैसी ‘सिचुएशन’ ही इज़ाद नहीं की गई.
रणबीर कपूर के लिए कामयाबी का इंतज़ार और लंबा हो जाएगा क्योकि अनुराग भाई ने पुनः जिस ‘बर्फी’ का निर्माण चार साल लगाकर किया है, उसे बॉक्स ऑफिस पर खाने के लिए कोई नहीं आ रहा है.