हे अमरनाथ! मत रहो अब जमे, पिघलो अब पिघलो

हे अमरनाथ!
मत रहो अब जमे
पिघलो अब पिघलो
निकलो बन के धारा गुफ़ा से
धोओ ये खून से लाल होती धरती…

पिघलो पिघलो अमरनाथ
बनो पानी
उतरो मनुष्यता की आँखों में
बर्फ हो चुकी मानवता को
दो चिलम की आग!

जमा करो सारे भड़कीले आचार विचार
हर तरह के वाद
निरर्थक संवाद
सब से जीतने और सबको हरा देने का हठ
और जमा करो बुद्धिजीवियों के भोंथरे तर्क
लगा दो उनमें आरती की बाती से लेके आग
कर दो भस्म

पोत दो धरती को आपादमस्तक,
मल दो सब तरफ भभूत
मिट जायें ये सारे रंग
तब सब दिखें बेरंग
धूसर, अघोर, औघड़
किसी को न रहे अपने अपने रंगों का गुमान…

तुमने पिया था न जो विष
बूंद भर ही तो था वो जो निकला था समुद्र मंथन से
ये आज की धरती है! ओह्
जितना मथो,
निकलता है केवल ज़हर
कितने कंठ भरोगे
इतने घड़े इतना विष?
मत पियो अब और हलाहल
अब उतारो ये ज़हर

पिघलो अब पिघलो
करो पानी पानी इसे
करो कुछ नीलकंठ
कि जहर से नीली हुई ये धरती
फिर से हरी हो जाय….

हे अमरनाथ!
पिघलो, पिघलो अब
न रहो थिर
करो तांडव
बजाओ डमरू
खोलो त्रिनेत्र
देखो पाप
उठाओ त्रिशूल….. जय हो।

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