किसी भी चीज को समझने के दो तरीके हैं. एक दैवी उत्पत्ति जो सभी क्षेत्रों में डार्विन से पहले दुनिया के सभी समाजों में अपने अपने ढंग से चलता था. इसे महत से तुच्छतर के क्रम में तुच्छतम तक के ह्रास और पतन का सिद्धान्त कह सकते हैं. दूसरा डार्विन के बाद से तुच्छतम से महत का क्रमिक उद्विकास.
चार्ल्स डार्विन ने अपनी विकासवाद की पुस्तक १९५९ में प्रकाशित की. कुछ समय घबराहट में बीते और फिर धीरे धीरे इसे स्वीकृति मिली. डार्विन की मृत्यु १८८२ में हुई . हाल यह कि मैक्समूलर जैसा व्यक्ति डार्विन के पुत्र से विकासवाद के सिद्धांत के विरोध में बहस कर रहा था.
इसका फलितार्थ यह कि संस्कृत के आतंक, बाइबिल की सृष्टिकथा से तालमेल बैठाते हुए उन्नीसवीं शताब्दी के सास्युर -पूर्व का भाषाविज्ञान प्राकवैज्ञानिक युग का भाषाविज्ञान है जिसकी विश्वसनीयता सन्दिग्ध है. इसमें ही ध्वनि नियम और आद्य रूपों की पुनर्रचना और आद्य भारोपीय का पूरा ढांचा तैयार हो गया, इसलिए वह पूरा तामझाम ही उल्टा है . इसका सही पाठ इसका उल्टा पाठ है.
मार्क्स ने हीगेल को उल्टा भले खड़ा कर दिया हो उनका अधिकांश लेखन डार्विन पूर्व है, इसलिए विज्ञान की दुहाई देने के बाद भी अवैज्ञानिक या प्राग्वैज्ञानिक है.
मार्क्स की याद तो हीगेल को सिर के बल खड़ा करने के मुहावरे से आ गई. कहना यह था कि भाषाविज्ञान को सही करने के लिए पहले की अवधारणाओं को अमान्य करने की, परन्तु उनके द्वारा जुटाई गई सामग्री का आदर करते हुए, उसे नई व्यवस्था के अनुरूप उपयोग में लाने की एक नई चुनौती है. यह है महत या परिनिष्ठित भाषा के क्षरण और ह्रास से बोलियों और उपबोलियों का आविर्भाव की अवधारणा. इसे उलट कर इसका पाठ, अर्थात् तथाकथित उपबोलियों से, जो स्वत: बोलियां या उपबोलियां न थीं, अपितु भाषाएं थीं, क्रमिक उत्थान से मानक भाषाओं का जन्म नहीं, समायोजन और पुनर्गठन हुआ है .
इस विषय में सास्युर की दृष्टि साफ न थी, ऐसा मुझे लगता है. पर उन्हे इसी दौर मे हुए रोमांस भाषाओं के अध्ययन से, जो संभव है डार्विन से प्रेरित रहा हो, अपनी दृष्टि मिली थी जिसमें यह तथ्य भी सामने आया था कि मानक भाषाएं बोलियों में से किसी के, किन्हीं कारणों से क्रमिक उत्थान से गठित हुई हैं .
तुच्छतम से महत्तम की विकासयात्रा में हम पाते हैं कि आदिम अवस्था में मनुष्य भी अन्य जानवरों की तरह छोटे छोटे यूथों या दलों में रहता था. आकार बड़ा हुआ तो आहार की आपूर्ति की समस्या पैदा होती और वह बंट जाता . अलग हुआ जत्था किसी दूर के क्षेत्र में पहुंचता जहां उसके पड़ोसी अंचल में बसने वाले जत्थे भिन्न भाषाभाषी हो सकते थे.
इसके विपरीत किन्हीं कारणों से यूथ की संख्या घट कर इतनी कम हो सकती थी जिसमें वह सुरक्षित नहीं रह सकता था. ऐसी स्थिति में वह किसी दूसरे यूथ की शरण ले सकता था जो भिन्न भाषाभाषी हो सकता था. इसके अतिरिक्त अपहरण आदि के चलते भी, भिन्न भाषाभाषी तत्वों के प्रवेश की संभावना बनी रहती थी . इन सभी परिस्थितियों में दुर्बल या अल्पसंख्य को प्रबल या बहुसंख्य की भाषा से ले कर रीति नीति अपनानी होती थी इसलिए उस पर गोचर प्रभाव नगण्य पड़ता था इसके बाद भी सभी भाषाएं, या आज की समझ से बोलियां – उपबोलियां आदिम आहार संचय और आखेट के चरण से ही बहुत सूक्ष्म रूप में इतरेतर भाषाओं से प्रभावित हो रही थी.
आदिम अवस्था में मनुष्य का जीवन अधिक सरल था. उसका बौद्धिक, संवेदनात्मक और कल्पना जगत बहुत छोटा था . उसका काम बहुत थोड़े से शबदों से चल जाता था. दक्षिणी अमेरिका में आज भी एक जन है जिसकी भाषा में दो से अधिक की संख्या के लिए शब्द नहीं हैं. तीन उसके लिए असंख्य या समस्त है क्योंकि वह दो से भी बड़ा इसलिए गणनातीत है. कभी हमारी भाषा का भी यही हाल था, इसलिए द्विवचन से आगे बहुवचन यह उल्लेख हम पहले कर आए हैं.
उन नितान्त सीमित शब्दों के लिए बहुत अधिक ध्वनियों की आवश्यकता न थी . उनका काम कुछ ध्वनियों और उनसे जुड़े संकेतों से ही चल जाता था . हमारी सहायता के लिए हमारी एक भाषा तमिल ने उस अवस्था का कुछ अवशेष बचा रखा है. उसमें घोष और महाप्राण ध्वनियों के लिए स्थान न था. इससे हम यह समझ सकते हैं कि उस आदिम अवस्था में भी कोई बोली तक दूसरी बोलियों के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त नही रह सकती थी.
स्थाई आवास और खेती तथा कौशलों के विकासक्रम में यह संपर्क और साझेदारी अपनी निजता बचाए रखने के बाद भी बढ़ी और बड़ी सामाजिक इकाइयां बनने के साथ अनेक का अपने परिवेश की प्रधान भाषा में विलय हो गया. इससे क्षेत्रीय बोलियों का चरित्र उभरा जिनकी तलहटी में कई बोलियों के तत्व लक्ष्य किये जा सकते हैं. तमिल जिसकी पुरातनता की बात हमने की है उसमें अनेक बोलियों की मिलावट के बाद यह रूप बना है जिस पर संस्कृत के तत्वों का समावेश बाद में हुआ, परन्तु स्वयं संस्कृत की निर्माण प्रक्रिया में सम्मिलित कतिपय बोलियों का प्रभाव तमिल की भी निर्माण प्रक्रिया पर पड़ा था.
आज की तिथि में हम यह तय नहीं कर सकते कि उन विलीन होने वाली बोलियों की ध्वनिमाला क्या थी. परन्तु ऐसा लगता है कि बोलियों का आंचलिक स्वरूप निर्धारित हो जाने के बाद भी पारस्परिक सम्पर्क में आने वाली बोलियों में से कुछ में केवल घोष महाप्राण, कुछ में केवल घोष अल्पप्राण ध्वनियाँ थीं और किसी में पाँचों वर्गीय ध्वनियाँ न थीं. एक में तालव्य ध्वनियों का जोर था तो दूसरी में मूर्धन्य ध्वनियों का. सभी स्वर किसी में न थे. यहाँ तक कि अ और आ जैसी ध्वनिया तक कुछ में नहीं थीं, और कुछ में ह्रस्व और दीर्घ स्वरों का अर्थभेदक प्रयोग नहीं होता है.
परन्तु ऋग्वेद की भाषा के अस्तित्व में आने से पहले संस्कृत की उस वर्ण माला की सभी ध्वनिया जिनका उल्लेख पाणिनि ने माहेश्वर सूत्र में किया है मानक भाषा में समाहित हो चुकी थीं. इनमे से कुछ ध्वनियाँ, जैसे ऋ और लृ वैयाकरणिक कंस्ट्रक्ट हैं, जिनका व्यवहार किसी बोली में नहीं होता था. पर वैदिक में इनका भी प्रयोग हो रहा था. यह वह मोटा दायरा है जिसमें हम इस लेनदेन को समझ सकते है.