इसे ही अपनी नियति मानो, सोचने-समझने की ज़्यादा बुद्धि ही नहीं तुम्हारे पास

1990 में कश्मीर से सभी पण्डितों को निकाल दिया, कुछ को मार दिया और कुछ को मुस्लिम बना लिया. निकाला क्यों था? अपना कश्मीर बनाने के लिए जहाँ सिर्फ और सिर्फ वही रहेंगे.

आज कश्मीर में सिर्फ और सिर्फ तुम्ही लोग हो फिर आज़ादी किससे माँग रहे हो? पहले पण्डित तुमको सता रहे थे उनके रहने से तुमको तकलीफ हो रही थी. वो चले गए तुमको अपना कश्मीर मिल गया.

अब कहते हो आज़ादी चाहिए… किस चीज की आज़ादी… ये तुमको खुद भी नहीं पता है.

वैज्ञानिकों का कहना है कि एक ही गोत्र या नजदीकी रिश्तों में शादी करने से जेनेटिक डिसऑर्डर हो जाता है जिसके कारण दिमाग की क्षमता कम हो जाती है.

तुम लोगों की भी असली समस्या यही है. अपना दिमाग तो है ही नहीं… मुठ्ठी भर नेताओं के बहकावे में आज़ादी-आज़ादी की रट लगाते रहना है.

अशिक्षा, गरीबी, बेरोज़गारी का रोना रोते हो… इसको दूर करने के लिए कभी सोचा है कि क्या किया जा सकता है?

पर्यटन रोज़गार का साधन था, उसको अपने ही हाथों नष्ट कर डाला, दूसरे राज्य वाले वहाँ कोई उद्योग लगा नहीं सकते और तुम लोगों से लगेगा नहीं तो बेरोज़गारी दूर कैसे होगी?

आज़ादी मिलना ही समाधान है क्या… या आज़ादी मिलते ही स्वर्ग से एक सीढ़ी नीचे आएगी और सारी सुविधाएं कश्मीर में पहुँच जाएँगी?

आज पत्थर फेंक कर और बंदूक उठा कर क्षणिक बेरोज़गारी तो दूर हो जा रही है… इसी को अपनी नियति मानो क्योंकि इससे ज्यादा सोचने और समझने की बुद्धि तुम्हारे पास है ही नहीं.

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