हिंदुस्तान की किसी ट्रेन की एक बोगी में औसतन 100 यात्री होते होंगे. फिर भी सिर्फ़ दो-चार असामाजिक तत्व आकर भी अपराध कर जाते हैं, क्योंकि 100 यात्रियों ने चूड़ी पहन रखी होती है. जबकि सच में चूड़ी पहनने वाली मेरे देश की कोई भी नारी अगर किसी अपराधी को कमर से पकड़ ले और दूसरी उसे दो तमाचे लगाये तो वो अपराधी पूरे जीवन किसी यात्री को लूटने से पहले दस बार सोचेगा.
यह डर ही है जो यात्री को कमज़ोर बनाता है और वही डर अपराधी के दिल में घुसते ही बाज़ी पलट जाती है. याद रहे तमंचे, चाक़ू, पिस्तौल भीड़ के सामने फुस्स हैं.
मै सदा से कहता रहा हूँ कि दो-ढाई लाख कश्मीरी पंडितों के दो सौ नवयुवक भी अगर लाल चौक पर इकट्ठा हो जाते तो उन्हें घाटी से पलायन नहीं करना पड़ता. संगठन में शक्ति होती है और पाँच उँगलियां एकसाथ आते ही मुक्का बन जाती हैं.
आतंकवादी की गोली से अगर दो-चार युवक मर भी जाते तो यह संख्या हर हाल में सैकड़ों बलात्कार और हज़ारों की हत्या से कम ही होती. और फिर पलायन करके हरेक के रोज़-रोज़ मरने से यह कीमत बहुत सस्ती पड़ती. लेकिन फिर जो डर आंतकवादी का आमजन में है, वही डर आमजन का आतंकवादी में होता.
डर के लिये सिर्फ़ संख्या काम नहीं आती, संख्याबल काम करता है. यह सच ना होता, तो अरब देशों के बीच में छोटा सा इज़रायल ज़िंदा नहीं बच पाता. इटालियन माता के दरबारी चाहे जितना शोर मचाये, मगर कटु सच यही है कि गोधरा के बाद 2002 के होने से फिर कभी गोधरा नहीं हुआ, वर्ना गुजरात में दंगों का एक लंबा इतिहास रहा है.
कैराना हो या केरल या बंगाल, जिस दिन हिंदू संगठित हो गया उस दिन से दंगे बंद. दंगा करना हमारे ख़ून में नहीं लेकिन दंगा रोकना तो हमारा नैतिक, सामाजिक कर्तव्य और प्राकृतिक मानवीय अधिकार है. इस अधिकार के प्रयोग से भोले बाबा के अमरनाथ यात्रियों को किसने रोका है? महाकाल के लाखों भक्त इस सच को कब स्वीकार करेंगे ? जिस दिन उन्होंने त्रिशूल की जगह लाठी भी उठा ली उस दिन स्टैनगनधारी कमज़ोर आंतकी उन पर हमला करने से पहले दस बार सोचेंगे.
पुलिस के सहारे जीने वाली डरपोक क़ौमें ज़्यादा दिनों तक जिंदा नहीं रह सकतीं क्योकि डर उनको हर पल मारता रहता है. वैसे भी जीवन एक यात्रा है और यात्री को हर यात्रा में अपने जानमाल की सुरक्षा ख़ुद करनी होती है.