नदियों का अपना कोई वजूद नहीं होता, वो या तो प्यास बुझाती हैं या पाप धोती हैं

औरत जब टूट जाती है तब भी रचती है कविता
क्योंकि औरत का सृजन से रिश्ता
प्रकृति की कोख में सीखा पहला पाठ है
जो उम्र के हर पड़ाव पर रचता है एक ग्रन्थ..

उसका जीवन इन्हीं पोथियों में बंद साँसे हैं
जो उसकी गर्भनाल से कटी कविताओं में
जीवित रहती है…

देह के उपालम्भों में आत्मा का निचोड़
उसे सूक्ष्म रूपा शक्ति ज़रूर देता है,
लेकिन वो जानती है-

हार्मोनल बदलाव की नैसर्गिक क्रिया
उसकी शक्ति को इतना स्थूल कर देती है
कि शक्ति की लिजलिजी परिभाषा
उसकी मांसल देह के
दुर्गन्ध में लिप्त अंग से माहवारी बनकर
हर महीने रिस जाती है…

चौथे दिन सर धोने की शुद्धिकरण की रीत की तरह
हर चौथे जन्म में उसके केशों में
बाँध दी जाती है गंगा की धाराएं
और समन्दर की ओर मुंह कर धकेल दी जाती है…

जाओ समर्पित हो जाओ अपने-अपने समंदर में
कि नदियों का अपना कोई वजूद नहीं होता
वो या तो प्यास बुझाती हैं
या पाप धोती हैं……

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