काफी पहले बचपन में एक फिल्म देखी थी ‘प्रतिघात’. इतने वर्ष बाद अब उसकी कहानी याद नहीं मगर उसका खलनायक याद है. वो सफ़ेद कुरते पायजामे में होता था और गुफ्ती रखता था. नायिका के प्रेमी या पति की हत्या उसने अपनी गुफ्ती से ही की थी. फिल्म के अंत में नायिका उसे माला पहनाती है. जिस थाल से माला उठा कर पहनाती है उसी में एक फरसा रखा होता है. अचानक वो फिल्म के उस आखरी दृश्य में फरसे से खलनायक पर कई वार करती है. कई प्रहारों से मृत खलनायक वहीँ मंच पर, भीड़ के सामने धराशायी होता है.
ये शीर्षक ‘चंपा तुझमें तीन गुण…’ शिवानी की किसी कहानी की पंक्तियाँ हैं, जो हमें याद है. उसमें भी कुछ कुछ ऐसा ही हुआ था शायद और उसका खलनायक भी कोई नेता ही था जो बांग्ला कविता सुनाता है. हमें वो कहानी भी याद नहीं.
हमने 1998 के ही दौर की एक दूसरी कहानी याद है. इस कहानी का खलनायक एक नेत्री का सुपुत्र था. हेमलता यादव उस समय महिला कल्याण का विभाग ही देखती थी. अगस्त के आखरी दिनों में एक दिन चंपा बिश्वास ने एफ.आई.आर. किया और कई लोगों का नाम ले डाला. उसने कई नेताओं, आई.ए.एस. अधिकारियों को उस दौर के मुख्यमंत्री के खासमखास बबलू का नाम भी बलात्कार के इस मामले में लिया.
मुख्य आरोपी बबलू यानि मृत्युंजय यादव राजद नेत्री हेमलता यादव का बेटा था. सियासी हलकों में हलचल मच गई. कई लोग रातों रात फरार हो गए. अख़बारों के पन्ने रंगे, आखिर माँ-बेटे को गिरफ्तार कर लिया गया. चंपा बिश्वास कोई आम गृहणी नहीं थी, वो एक वरिष्ठ आई.ए.एस. अधिकारी बी.बी. बिश्वास की पत्नी थी और दो बच्चों की माँ भी.
मुकदमा शुरू हुआ और मामले को दबाने का खेल भी साथ ही शुरू हुआ. इस परिवार पर तरह-तरह के दबाव बनाए जाने लगे. चम्पा बिश्वास ने सरकारी वकील पर सबूत नष्ट करने के आरोप लगाये. जब जज एक बड़े राजनेता को अदालत में पेशी का हुक्म नहीं दे पाए तो उन्हें भी बदलना पड़ा. उसी बीच बिहार का विभाजन हुआ.
बी.बी. बिश्वास की ऐसी हालत कर दी गई कि एक दिन उनकी मौत भी हो गई. 2002 के मई में मृत्युंजय यादव बेल पर बाहर आ गया. ट्रायल कोर्ट ने उसे दोषी माना, उधर पति की मौत के बाद चंपा बिश्वास दिल्ली या कोलकाता जाकर रहने लगी थी.
मामला उच्च न्यायलय में पहुंचा. आखिर 2012 में हाई कोर्ट के जज ने कहा कि ये मामला बलात्कार का नहीं बल्कि आपसी सहमति का है. अब अदालत कहती है तो शायद आपसी सहमति के तहत ही चंपा बिश्वास ने दर्जनों लोगों से सम्बन्ध बनाए होंगे.
करीब पांच साल पहले ये फैसला आने के बाद मृत्युंजय यादव का कहना था कि अगर उन्हें जेल नहीं हुई होती तो वो भी अपने और कई दोस्तों की तरह आज कहीं आई.ए.एस. या आई.पी.एस. होते.
हमें मालूम नहीं उनका आई.ए.एस. होना देश की आम जनता के लिए कैसा होता. उस दौर के कई नेताओं ने कहा था कि जहाँ आज आई.ए.एस. इस जंगल राज में अपने परिवारों की सुरक्षा नहीं कर पा रहे वहां आम लोग कितने सुरक्षित हैं?
हमें ये भी नहीं पता कि उस दौर के लालू राज में बिहार का आम आदमी कितना सुरक्षित था. मृत्युंजय के अलावा भी और कई लोगों पर बलात्कार का ही अभियोग उसी मामले में था. हमें ये भी नहीं मालूम कि उन सभी लोगों का क्या हुआ, वो छूटे या बंद हुए या उनकी भी आपसी सहमति थी.
हमें बस इस “चंपा तुझमें तीन गुण…” वाले कविता के दूसरे वाक्य पर आपत्ति है. चंपा का अवगुण, भ्रमरों का पास ना आना हरगिज़ नहीं होता. चंपा का अवगुण था कि उसने खुद फरसा उठा कर हिसाब उसी वक्त तो क्या, अभी तक नहीं किया है.