कानपुर से पश्चिमोत्तर 80 किलोमीटर दूर गंगा किनारे एक शहर जहां खुशबुओं का कारोबार होता है. कन्नौज की नालियों से भी इत्र की खुशबू उठती है.
वक्त का तकाजा है कि आज यह कारोबार धीरे धीरे मर रहा है और वह भी जो घास के तिनकों और मिट्टी से इत्र निचोड़ने का हुनर रखता है.
कहतें हैं एक ज़माने में कन्नौज के कारीगर किसी भी चीज से इत्र निचोड़ने का हुनर जानते थे, किसी भी मतलब किसी भी चीज से.
बारिश का पानी सोखकर धरती गर्भ धारण करती है. आसमान और धरती के इस निषेचन से जन्मी खुशबू चित्त को खुशगवार बनाती है. गंध भावनाओं को प्रभावित करती है और भावनायें व्यवहार को. ये अतीत की यादों में ले जाकर किसी को जला सकती है, वर्तमान के पलों को रूमानियत से भिगो सकती है.
मिट्टी इत्र बनाने के लिये मिट्टी के बर्तनों को स्टीम डिस्टिलेटर में डालकर कोयले की आंच पर तपाया जाता है. वहां से निकली भाप प्रेशर से तांबे के बर्तनों में इकट्ठा होती है. तांबा सोखकर ये भाप चंदन तेल के संपर्क में जाती है.
और फिर यहाँ से जो भाप निकलती है उसमे ऑयल बेस होता है जिसे कंडेन्सर में डालने पर आखिर में जो तरल मिलता है उससे गीली मिट्टी की खुशबू रिसती है.
गीली मिट्टी की खुशबू विचलित मन शांत कर स्थिर बनाती है. कभी मानसिक तौर पर अस्थिर लोगों का उपचार इस मिट्टी इत्र से किया जाता है.
आज परफ्यूम बनाने वाली बड़ी कंपनियां विदेशों में इसे रेन परफ्यूम के नाम से लेबल लगी बोतलों में ऊंची कीमतों पर बेचती हैं. भारत का दुर्भाग्य रहा है यहाँ अपनी परम्परा, संस्कृति, ज्ञान, हुनर की कद्र तब होती है जब कोई विदेशी आकर इसे समेट ले जाता है.
खैर बात चली थी इत्र की… कहाँ से कहाँ चली जाती है. रात भर बारिश हुई, अभी भी जारी है. पक्के शहरों ने कच्ची मिट्टी को निगल लिया है. जाने कहाँ की थोड़ी बची मिट्टी बारिश में घुलकर जेहन तक उतर गयी… अथ श्री इत्र कथा.