“हे आर्यपुत्रों, श्रीकृष्ण के अर्जुन बनो, युधिष्ठिर नहीं.” उपरोक्त कथन मेरे पिछले एक लेख की अंतिम पंक्ति थी. जिस पर मेरे कुछ एक मित्र ने असहमति जताई थी तो कइयों ने इस पर विस्तृत व्याख्या चाही थी. मैं अब भी अपने लिखे उपरोक्त कथन के साथ खड़ा हूँ.
[संदर्भित लेख : दुनिया की कई शक्तियां नहीं चाहतीं कि हम समझें महाभारत के संदेश]
चूँकि मैं सदा अपने हर शब्द सोच-समझ कर लिखने का प्रयास करता हूँ, इसलिए ऐसा कुछ लिखने के पीछे भी मेरे अपने तार्किक विचार हैं. जिसे विस्तार में यहाँ लिखने से पूर्व मैं सिर्फ दो प्रश्न करना चाहूंगा. धर्म क्या है? और धर्म की स्थापना कैसे हो सकती है? यह दोनों प्रश्न यहाँ इसलिए आवश्यक हो जाते हैं क्योंकि युधिष्ठिर को धर्मराज माना जाता है जो कभी झूठ नहीं बोलते थे.
यूं तो धर्म एक शब्द मात्र है मगर इसका अर्थ अपने आप में किसी ग्रन्थ से कम नहीं. धर्म एक जीवन संस्कृति की परिकल्पना है. जहां कर्तव्य है, सदाचार है, सद्गुण है, सद्भाव है, समानता है, संतुलन है. धर्म के शब्दार्थ से अधिक भावार्थ गहरे हैं. इसका धरातल पर व्यावहारिक प्रयोग बेहतर व्याख्या करता है.
यह विश्व मानव समाज के लिए आवश्यक है जिससे मनुष्य सफल, सुखी, शांत, सुरक्षित और समृद्ध जीवन जी सके. उसके लिए हरेक को अपने-अपने धर्म का पालन करना होता है. फिर चाहे वो पुत्र धर्म हो, पितृ-मातृ धर्म, पति-पत्नी धर्म, राजा का धर्म, मंत्री का धर्म, सैनिक का धर्म आदि-आदि.
और इस जीवन संस्कृति का पालन सनातन संस्कृति में होता है, यही सनातन व्यवस्था है, यही सनातन जीवन पद्धति है. इसीलिए सनातन ही दुनिया का एकमात्र धर्म है. हो सकता है इसमें समय-समय पर कुछ कमियां आ गयी हों मगर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि यही दुनिया की एकमात्र प्राकृतिक धर्म व्यवस्था है.
क्या इस सनातन व्यवस्था की स्थापना और संचालन युधिष्ठिर अकेले कर लेते? तुरंत कोई भी जवाब दे सकता है, नहीं.
सामान्य रूप में देखा जाए तो उपरोक्त विचार और नीति सभी समाज के लिए आवश्यक नजर आती है. जिस समाज में इसका पालन नहीं होता वहाँ अधर्म होता है. ऐसे में धर्म की स्थापना के लिए क्या किया जाना होता है?
शांति बहाल करने के लिए, अशांति फैलाने वाले राक्षसों के विनाश के लिए, अंत में शक्ति की ही जरूरत होती है. अर्थात पहले बौद्धिक प्रयास कर्म, फिर सख्त व्यवहार और अधर्मी के खिलाफ संघर्ष, और अंत में युद्ध आवश्यक हो जाता है. तभी आदर्श स्थापित हो पाता है.
न्याय का राज तभी चल सकता है जब न्याय व्यवस्था को माना जाए, उसका पालन हो, क्रियान्वन हो. यहां सही-गलत न्याय की बात बाद में आती है. अगर कोई अधर्मी न्याय को माने ही ना तो उसमें एक युधिष्ठिर क्या कर सकता है? कुछ नहीं.
अंत में अन्यायी दुर्योधन और शकुनि के लिए भीम और अर्जुन को ही आगे आना पड़ता है. अर्थात शक्ति से ही धर्म की स्थापना हो सकती है. वैसे शक्ति तो दुर्योधन के पास भी थी मगर जो उस शक्ति का दुरूपयोग करे वहां अधर्म होता है और ऐसा करने वाला अधर्मी.
तो ऐसे अधर्मी को समाप्त करने के लिए ही भीम और अर्जुन की जरूरत होती है युधिष्ठिर की नहीं. युधिष्ठिर न्यायप्रिय हो सकते हैं, धर्मी हो सकते हैं मगर आप को धर्म और न्याय के सिंहासन पर बिठायेगा कौन? कोई शक्ति, कोई व्यवस्था.
वो शक्ति और व्यवस्था भीम-अर्जुन की थी. सिर्फ राजा के सच बोलने से क्या होगा जब बाकी सब झूठ में सराबोर हों. तब झूठ की कमर तोड़ने के लिए शक्ति की जरूरत होती है.
झूठे और कपटी कौरवों को समझाने का प्रयास तो कृष्ण ने किया था मगर अंत में युद्ध लड़ना ही पड़ा. जहां प्रमुख भूमिका अदा की भीम और अर्जुन ने. सच कहें तो भीम और अर्जुन से युधिष्ठिर हैं, युधिष्ठिर से भीम-अर्जुन नहीं. युधिष्ठिर ज्येष्ठ पांडु पुत्र हो सकते हैं मगर उन्हें इस सिंहासन पर बैठाया अन्य कुंती पुत्रों ने ही.
आज के युग के हालात तो भयावह है. वैसे भी यह कलयुग है, जहां धर्म नाम के लिए रह गया है. ऊपर से धर्म का पश्चिम और अरब समाज में कोई शब्द नहीं. अर्थात उनकी सभ्यता-संस्कृति में इसका चलन भी नहीं होगा.
जिस धर्म को वे धर्म कहते हैं वो असल में धर्म नहीं. वो एक विशेष पूजा पद्धति हो सकती है, सम्प्रदाय हो सकता है, मगर धर्म नहीं. उनका यह कैसा धर्म है जो दूसरों को अपने-अपने धर्म के स्वतंत्र पालन की अनुमति तक नहीं देता.
वे सबको अपने जैसा बनाने को ही अपना धर्म मानते हैं और धर्म परिवर्तन के लिए छल-बल का प्रयोग करते रहते हैं. यह तो सीधे सीधे अधर्म हुआ. और यही आज हो रहा है, चारों ओर. जहां जब दूसरी पूजा पद्धति वाले का गला काटने की कोशिश हो रही हो, ऐसे में युधिष्ठिर होते तो क्या करते? शायद कुछ नहीं.
सच पूछा जाए तो महाभारत काल में भी युधिष्ठिर ने क्या कर लिया था? उस युग में धर्म की स्थापना के लिए उनका क्या योगदान था? यकीनन वे राज्य की स्थापना के बाद धर्म का पालन करने वाले एक महान सम्राट बने. मगर उन्हें चक्रवर्ती सम्राट बनाया किसने था? अर्जुन ने, भीम ने.
अगर भीम ने मल्लयुद्ध में जरासंध का वध ना किया होता तो क्या युधिष्ठिर राजसूय यज्ञ कर पाते. अगर चारों पांडव चारों दिशाओं में नहीं जाते और रास्ते में आने वाले शत्रुओं को युद्ध में परास्त नहीं करते तो क्या युधिष्ठिर इंद्रप्रस्थ पर शान से राज कर पाते. और फिर यही क्यों… महाभारत किसने जीता था? मूलतः भीम और अर्जुन ने.
क्या द्रौपदी को जुए पर लगाना और फिर हार जाना कहीं से भी धर्म का काम हो सकता है. और फिर अपनी पत्नी द्रौपदी के अपमान का बदला भी तो युधिष्ठिर नहीं ले पाए. वो भी भीम ने लिया. अर्थात एक स्त्री के मान-सम्मान की रक्षा, जो कि धर्म का काम है, वो भी भीम ने किया और कई मौको पर अर्जुन ने.
आज तो दुर्योधन से भी अधिक शक्तिशाली और अनेक दुर्गुणों से लैस राक्षसों का वर्चस्व है और जब चारों ओर अधर्म का बोलबाला है तो ना जाने जुए में क्या-क्या दांव पर लग रहा होगा, ना जाने कितनी स्त्रियों का चीरहरण हो रहा होगा, ना जाने कितने लाक्षागृह बनाये जा रहे होंगे, ना जाने कितने पांडवो को घर से बेघर कर दिया गया होगा, ना जाने कितनों का स्वार्थ और अहंकार सातवें आसमान पर है.
यह तो राक्षसों की आपस में प्रतिस्पर्धा का युग है जहाँ इनके बीच अधिक से अधिक अधर्म करने की होड़ मची है. जो मानव के रक्त के प्यासे हैं उनके लिए कोई व्यवस्था, कोई नियंत्रण नहीं रह गया.
ऐसे दुर्जनो की कोई नीति नहीं हो सकती, उनका कोई आदर्श नहीं हो सकता. ये सब रावण और कंस के वंश के बिगड़ैल कलयुगी अवतार हैं. आज हालत महाभारत से अधिक विकृत हैं. चारों ओर एडवांस वर्जन के दुर्योधन, शिशुपाल, जरासंध, दुःशासन, शकुनि घूम रहे हैं.
इनके सामने क्या अब भी यह प्रश्न उठेगा कि हमें क्या बनाना चाहिए और क्या नहीं? अब यह सिर्फ धर्म की लड़ाई नहीं रह गई है, अब यह अपने अस्तित्व की लड़ाई भी है, इसलिए अंत में एक बार फिर यही कहूंगा –
हे आर्यपुत्रों, श्री कृष्ण के अर्जुन बनो, हो सके तो बेशक भीम बनो, मगर युधिष्ठिर नहीं.
हाँ अगली महाभारत जीत कर अपना नया युधिष्ठिर चुन लेना और सम्राट उसी को बनाना. मगर अभी जरूरत भीम और अर्जुन की अधिक है.