राष्ट्र तो हमारे ही बाप का, बाकियों के लिए तो सिर्फ अपना मज़हब फ़ैलाने की ज़मीन

यह जो कश्मीर, केरल और बंगाल में हो रहा है, यह होना ही था. भारत में यह आज जो हम देख रहे है यह सब एक दिन में नहीं हुआ है, आज की स्थिति में आने में इसको कई दशक लगे हैं. यह शुरू में तो दिखता ही नहीं है और जब दिखता है तब गंगा जमुनी तहजीब और धर्मनिरपेक्षता की अफीम हमें उसको स्वीकारने भी नहीं देती है.

जब हमें यह प्रचंड ज्वाला बनी आगे बढ़ते हुये दिखती है तब हमारी गुलामी की मानसिकता और अब तक का लिखा-पढा इतना कमजोर बना देता है कि या तो हम वहीं जड़वत खड़े ज्वाला को लीलने देते है या फिर हम रोते-चिल्लाते हुये, सरकारों या दूसरों को दोष देते हुये भाग खड़े होते है. हमने खुद अपने अंदर प्रतिघात की क्षमता का गला घोंट रक्खा है.

सवाल यह है कि हम ऐसे कैसे हो गये हैं? हमारे शासकों और शिक्षा व संस्कृति के चौधरियों ने ऐसा क्या कर दिया कि 1947 को मिली स्वतंत्रता के बाद भी हम अपने अंदर की गुलामियत से मुक्त नहीं हो पाये?

हम यह इसलिये हो गये हैं क्योंकि हमने अपने बचपन से लेकर बड़े होने के बीच जो इतिहास पढ़ा है उसने हमें इतना दिगभ्रमित कर दिया है कि कोई सूरज की रोशनी में भी सत्य दिखाता है तो वह मतिभ्रम लगता है.

बचपन में हमारा इतिहास से परिचय, स्कूल की किताबों से शुरू होता है, जिसमें हम महापुरुषों की जीवन गाथाओं को पढ़ते हैं. जब हम थोड़ा और बड़े होते है तो अन्य पत्रिकायें और कॉमिक्स हमारे सामने आते हैं, जिसमें भी चित्रकथा के माध्यम से हम उन्ही नायकों को पढ़ते हैं.

हम जैसे-जैसे बड़े होने लगते है वैसे-वैसे हमारी शिक्षा हमको, अहिंसा की, सत्य की, न्याय की और धर्म की शिक्षा, इन्हीं महापुरुषों के माध्यम से देने लगती है. यह जो हमें स्कूल कालेजों के पाठ्यक्रम के माध्यम से शिक्षा मिलती है, इसमें सब कुछ होता है लेकिन राष्ट्रवाद नहीं होता है.

इसमें हमारा पुराना इतिहास, पौराणिक गाथा होती है, इसमें मानवतावाद होता है, इसमें योरपियनो द्वारा प्रतिपादित आर्य और गैर आर्य की कल्पना, सिद्धांत के रूप में होती है, इसमें वर्ग संघर्ष भी होता है, लेकिन इसमें राष्ट्र नहीं होता है.

हमें जिन राष्ट्रीय नायकों से परिचय कराया जाता है वह या तो अहिंसा, न्याय, सत्य और धर्म के पुजारी होते है या फिर, कुछ अपवादों को छोड़ कर, अपने लक्ष्य में असफल व पराजित हुये होते हैं.

अब यहां यह दिक्कत आती है कि जो नायक असफल हुये हैं, उनको पराजित करने या मारने वाले का परिचय, बाद का इतिहास हमें, महान बताते हुये मिलता है. विदेशी आक्रान्ताओं को इसी भारत की मिट्टी की पौध बताया जाता है.

हमें यह भी बताया जाता है कि आज जो कुछ भी भारत में श्रेष्ठ दिख रहा है, वह पश्चिम से आये अरबी, तुर्की, अफगानी, पर्शियन, मुगलों और अंग्रेजों की ही देन है. यह सब सिर्फ किताबों में ही नहीं लिखा है बल्कि नव भारत के काल से राजनैतिक नेतृत्व ने भी इसी को ही स्वीकार किया है.

यही सब हमारे अंदर एक ऐसी नींव जमा जाती है जो आगे चल कर हमें मानसिक रूप से अपंगता और स्वाभिमान के रूप में एक विक्षिप्त सा अहंकार व हीनता दे जाती है. हम सदियों से हारे हुए लोग हैं, हम सदियों से गुलाम बने लोग हैं. हम इतने लम्बे काल से गुलामी की बेड़ियों में बंधे थे कि आज जब बेड़ियां खुल गयी हैं, तब भी हम उससे अपने को बंधा हुआ ही महसूस करते है और जोड़े हुये हाथ को खोलने से डरते हैं.

हमारे अंदर इस अहिंसा, सत्य, न्याय और धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा ने काल दर काल, इस गुलामियत की हीनता ने और भी मजबूत किया है. यह सब हमारे कांग्रेसी शासकों और उनके वामपंथी सहयोगियों ने बड़ा सोच और समझ कर किया है क्योंकि उन्हें मालूम था कि,

गुलाम के लिए अहिंसा एक कायरता है.
गुलाम के लिए सत्य उसकी जीविका है.
गुलाम के लिए न्याय स्वामी की दासता है.
गुलाम के लिए धर्म सिर्फ हालात से समझौता है.

ये वो घटक है जिनसे राष्ट्र के नागरिक नहीं बनते हैं बल्कि सिर्फ अच्छे गुलाम बनते है. मैंने जितना इतिहास पढ़ा है, वह चाहे भारत का हो या शेष विश्व का, उसमें देखा है कि सृष्टि के समय से ही वह सब तमाम सभ्यताएं और राष्ट्र, इस धरती से खत्म हो गए है जिनके बारे में पढ़ कर यह लगता था कि उनका विलोप इस धरती से नहीं होना चाहिए था. लेकिन वो नष्ट हो गये.

जब उनके विलुप्त होने के कारणों की मीमांसा की तो एक बात समझ में आयी कि जिनकी संस्कृति बड़े उत्थान पर थी, जो बड़े शांतिप्रिय थे, जो खुशहाल और संतुष्ट थे, वह फिर भी, हर उस शक्ति से, जो उनसे बौद्धिक और संस्कृति में काफी पीछे थे, से नष्ट हो गये थे. उनका अस्तित्व समाप्त हो गया क्यूंकि वे सब कुछ थे लेकिन संगठित शक्तिशाली नहीं थे. उनके अंदर ‘महान’ होने की भावना ने अहंकार का रूप ले लिया था और दुनिया बदल रही है वह इस अहसास से कटे हुये थे.

आज भारत के नव गुलाम इसी त्रासदी से गुजर रहे हैं. उन्हें अहिंसा, सत्य, न्याय और धर्म की कलुषित धर्मनिरपेक्षता ने इतिहास का ही बंदी बना लिया हैं. वे सब देखते और समझते हैं, लेकिन बस राष्ट्र नहीं देखते और न राष्ट्र को समझते हैं. यह नव गुलाम राष्ट्र और राष्ट्रवादिता दोनों के ही चिर काल से विरोधी हैं.

हमें इन नव गुलामों पर कभी भी दया की संवेदनशीलता नहीं दिखानी चाहिए और न ही इनकी अपंग बौद्धिकता से शास्त्रार्थ करना चाहिए क्योंकि इन्होंने अपने आप को समझ के, नए विचारों और नए सृजन के लिए द्वार बंद कर दिये हैं. हमारे जैसे लोगों की दुविधा यह है कि हमें निर्णय करना है और उसमें देरी कर रहे हैं. हमें निर्णय भूतकाल के गुलामों और वर्तमान के नवगुलामों को समझते हुए लेना है.

निर्णय यह लेना है कि राष्ट्र ऊपर है या अहिंसा?
निर्णय यह लेना है कि राष्ट्र ऊपर है या सत्य?
निर्णय यह लेना है कि राष्ट्र ऊपर है या न्याय?
निर्णय यह लेना है कि राष्ट्र ऊपर है या धर्म?

यह निर्णय का काल है.

हमें अपने और राष्ट्र के अस्तित्व के लिये इसको तो लेना ही होगा क्यूंकि यह राष्ट्र हमारे ही बाप का है और जिनके बाप अरब, पाकिस्तान, वेटिकन और मार्क्स में बसते हैं, उनके लिये मेरा भारत कोई राष्ट्र नहीं है बल्कि प्रयोगों, शोषणों और इस्लाम व ईसाइयत फ़ैलाने की सिर्फ ज़मीन है.

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