पिछले एक महीने से, सिक्किम सीमा पर भारत और चीन के बीच तनातनी चल रही थी और उसका उग्र रूप भूटान के डोकलाम क्षेत्र पर दिखा है, जहां चीन, भूटान के क्षेत्र पर अपना दावा दिखा कर सड़क का निर्माण करना चाहता है. अब क्योंकि 1949 की संधि के अनुसार, भूटान की सुरक्षा का दायित्व भारत का है, इसलिये, भारत की सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण इस इलाके पर भारतीय सेना ने चीन की सेना को रोक दिया है.
इसके बाद से ही चीनी मीडिया भारत को धमकियां देने में और चीन का विदेश मंत्रालय तमाम तरह के झूठे नक्शे व वीडियो दिखा कर डोकलाम इलाके को चीन का हिस्सा बताने की कोशिश में लग गया है.
अब इस सबका परिणाम यह हुआ है कि जहां भारत के विपक्षी दलों और उनकी समर्थित मीडिया को सरकार पर फब्तियां कसने का मौका मिल गया है, वहीं पर, राष्ट्रवादियों के खून में गर्माहट आ गयी है, जो युद्धोन्माद से सराबोर हो चीनी सामान के बहिष्कार तक के लिए व्याकुल हो गया है.
मैं इन लोगों की भावनाओं को समझता हूं लेकिन उनको भी यह समझना चाहिये कि यह सीमा पर हो रही जोर आजमाइश, अभी युद्ध नहीं लाने वाली. यह चीन की विरासत में मिली हैगामोनी से लिप्त कूटनीति है. यह चीन का अपनी बात न मनवा पाने की झुंझलाहट का इज़हार करने व अपने प्रतिद्वंदी की मानसिक दृढ़ता को समय-समय पर तौलने का तरीका है.
जब से भारत में नरेंद्र मोदी की सरकार आयी है तब से चीन बराबर इस कोशिश में लगा हुआ है कि किसी तरह से भारत को सीमा विवाद में उलझाया जा सके जिससे चीन, भारत को आर्थिक व सामरिक रूप से असहाय कर सके.
यहां यह समझ लीजिये की चीन के दृष्टिकोण से, विश्व में अपना प्रभुत्व जमाने के लिये बहुत जरूरी है कि वह भारत की आर्थिक दौड़ पर लगाम लगाये और उसको अस्थिर रख सके. यही एक कारण है कि चीन, भारत की चीनी सीमा पर लेह से लेकर अरुणाचल तक, भारत की सैन्य तैयारी को लेकर खुश नहीं है क्योंकि भारत की तैयारी, चीन की दीर्घकालीन विस्तारवादी नीतियों की सफलता पर प्रश्नचिह्न लगा दे रही है.
यह बहुत संभव है कि लोगों में इस बात को लेकर द्वन्द हो कि एक तरफ चीन अपनी मीडिया के द्वारा भारत को 1962 की हार की याद दिला रहा है और जी 20 की बैठक में ‘चीनी राष्ट्रपति, मोदी से बात नही करेंगे’ जैसी खबर प्रचारित कर रहा है, वहीं चीन की सरकार भारत से उसकी धरती पर से कब्जा किये जाने पर विरोध प्रगट कर रहा है और जी 20 समिट की बैठक में मोदी जी के भाषण की न सिर्फ तारीफ कर रहा है बल्कि भारत की आर्थिक प्रगति को सराह रहा है!
यही चीनी कूटनिति का चरित्र है. वैसे तो मैं इस पर बहुत कुछ लिख सकता हूँ लेकिन संक्षिप्त में सरल शब्दों में इसको समझाने का प्रयास करता हूँ.
पहले तो यह साफ तौर पर समझ लीजिये कि चीन में भले एक पार्टी यानी कम्युनिस्ट पार्टी, का शासन है और उनका हर शासन का तंत्र, पार्टी के ही अधीन है लेकिन वहां भी कई धारायें चलती है. चीन में एक तरफ राजनैतिक सत्ता केंद्र है जो हमें वहां के राष्ट्रपति के रूप में सामने दिखता है और दूसरी तरफ चीन की सेना है, जो ‘पीपल्स लिबरेशन आर्मी’ के नाम से जानी जाती है.
चीन की सेना पर नियंत्रण ‘सेंट्रल कमांड कमीशन’ का होता है और उस पर, उसके राजनैतिक मंत्रालय, ‘चीनी रक्षा मंत्रालय’ का प्रभावी नियंत्रण नहीं होता है. चीन में सत्ता संघर्ष भी जो होता है वह ‘सेंट्रल कमांड कमीशन’ पर चीनी राष्ट्रपति के प्रभुत्व को लेकर होता है.
चीन की सेना का नेतृत्व, हमेशा से माओ की विस्तारवादी नीति को समर्पित होता है और वह सैन्य बल और सामरिक शक्ति की धौंस में, अपने मामले निपटाने में यकीन रखता है. चीनी कूटनीति में ‘कैरट और स्टिक’ (गाजर और डंडा) की तर्ज में, उसकी सेना स्टिक (डंडे) का काम करती है.
अंत में यह समझ लीजियेगा कि भारत ने मोदी जी के नेतृत्व में कूटनीति से और सामरिक संतुलन को नई दिशा देकर, जो अब तक सबसे बड़ी कामयाबी प्राप्त की है वह, “चीन की डंडा पॉलिसी” के दम्भ को तोड़ कर की है.