ये जादू ही तो है
कि बचपन का कोई खेल
जो मन के साथ खेलती आई
वो जीवन में उतर आया….
छुटपन की खिलखिलाहट
और लड़कपन का उन्माद
धीर गंभीर मुस्कराहट पर
होले से लुढ़क आया….
आँखों की भाषा
सुनने लगा कोई
ज़ुबां की खामोशी को
किसी ने गले लगाया…..
हाँ वो बचपन का ही तो
कोई खेल था….
जब आँख मिचौली के खेल में
आँखों पर पट्टी बंधी रहती
और आसपास होती सरसराहट की ओर दौड़ जाती
और पकड़ने की कोशिश करती थी
हाथों से बच निकलने वाले सायों को…
कौन जानता था
आज वही खेल दोबारा खेलूंगी
खुली आँखों से कोई सपना बुनूँगी..
सपने की कोई छवि मन में गढ़ूँगी
और उसे छूने के लिए हाथ बढ़ाऊंगी
और सपने का स्पर्श पा सकूंगी..
एक स्पर्श…..
जो मुझे मुक्त कर जाए
जीवन की दृश्य सीमाओं से
और एक अदृश्य और असीमित लोक में
स्थान दिला दें
जिसे कोई कहता है स्वर्ग
कोई कहता है अलौकिक स्थल
और मैं कहती हूँ जादू……
जो मेरे बाल मन की कोमल कल्पनाओं में उतर आया…
मेरे बचपन ने खेला कोई खेल
और लड़कपन ने गले लगाया
खोजती रही आँखें उस अदृश्य से सपने को
और सपने ने खुद मुझे ये किस्सा सुनाया
कि वो कोई खेल नहीं था
जो तुम खेल रही थी
वो तो उसी सपने की डोर थी
जो तुम बुन रही थी
सपने ने स्वरूप पा लिया
सरसराहट की ओर दौड़ पड़ो
और दबोच लो उसे….
आज ये खेल पूरा हुआ
उतार फेंको आँखों से इस लोक की पट्टी
देखो तुम्हारी कल्पना ने कितना सुन्दर रूप है पाया
अब तुम जादू कहो या कहो सपना
तुम्हारी प्यास ने आज है ये रंग दिखलाया
कि पूरी हुई तलाश
और तुमने सपने का स्पर्श पाया………
अब जी लो चाहो तो इसे इसी लोक में
या अलौकिक कहकर ब्रह्माण्ड में घूम आओ
सारी सृष्टि ही तुम्हारी है
पूरी कायनात को तुमने पाया
सिर्फ तुमने
सिर्फ मैंने
सिर्फ हमने…..