प्रधानमंत्री की इजराइल यात्रा एक सरकारी दौरा नहीं है… एक राष्ट्र प्रमुख की दूसरे राष्ट्राध्यक्ष से मुलाक़ात भर नहीं है… यह दो प्राचीन सभ्यताओं का मिलन है…
दो सभ्यताएं जिनमें बहुत कुछ कॉमन है… एक समय, इस्लाम की आपदा से पहले दोनों की सीमाएं मिलती थीं, पर दोनों में किसी तरह के टकराव की कहानी हमने नहीं सुनी. दोनों में से किसी को भी किसी और को अपने धर्म में शामिल करने की, अपने धर्म प्रचार की, मार्केटिंग की खुजली नहीं थी…
पर इतिहास में दोनों ने कुछ कॉमन गलतियाँ भी की हैं… सबसे बड़ी गलती की है; अपने काम से काम रखा है… हमने अपनी रोजी रोटी कमाने पर ध्यान दिया है… अपने बच्चे पाले हैं, अपने खेत जोते हैं, अपनी फसल काटी है, अपना सौदा बेचा खरीदा है.
हिंदुओं और यहूदियों, दोनों में किसी को भी दुनिया जीतने का शौक कभी नहीं चढ़ा. दोनों के लिए धर्म का मतलब रहा, अपनी आत्मा का उत्थान… अपने बच्चों के संस्कार… दोनों सभ्यताओं ने विज्ञान, कला और संस्कृति को बहुमूल्य योगदान दिया है.
पर मानें या ना मानें, दोनों सभ्यताओं ने अपने काम से काम रखने की बहुत कीमत चुकाई है. दोनों को अपने घर में घुसे आ रहे आक्रांताओं को झेलना पड़ा है.
यहूदियों को डेढ़ हजार साल तक बिना घर के रहना पड़ा है. लेकिन दुनिया भर में फैले यहूदियों ने कभी कोई शिकायत नहीं की. जहाँ रहे, कुछ दिया ही है. कोई आतंकवादी नहीं बना… किसी ने बदला लेने की नहीं सोची… किसी ने कड़वाहट और घृणा नहीं बाँटी… लेकिन हमेशा सबकी घृणा का शिकार हुए.
कुछ ऐसे ही आज हिन्दू हैं, पूरी दुनिया में फैले हुए… अपने काम से काम रखने वाले, अपने बच्चों को स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी भेजने वाले, उन्हें डॉक्टर-इंजीनियर-अकाउंटेंट बनाने के फिक्रमंद… दुनिया से बेखबर… अपने हाथ से अपना देश निकलता जा रहा है… कोई बात नहीं, कहीं भी रोटी कमा लेंगे…
पर एक दिन यहूदियों की नींद खुली, जब उन्होंने अपने आप को कंसंट्रेशन कैम्प्स में पाया… अपने बिस्तर पर सोये थे, गैस चैंबरों में जागे… लाखों जीवन गँवाने के बाद एक सबक सीखा… अपना एक देश बनाने के लिए लड़े, जीते, जिये…
आज हिन्दू अपने ऐतिहासिक गंतव्य पर यहूदियों से सिर्फ कुछ पीढ़ी पीछे-पीछे चल रहे हैं. जो खो रहा है उसकी समझ नहीं है. जो आने वाला है उसकी खबर नहीं है. अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में उलझे हैं.
70 साल बाद देश ने हिन्दू जनमत वाला एक नेतृत्व चुना है. उसे भी अपने इस ऐतिहासिक दायित्व का बोध है कि नहीं, पता नहीं… सड़क, बिजली-पानी, नोट बदलने और टैक्स के गणित में उलझे हैं. पूरा देश, पूरी सभ्यता ही इसी गणित में उलझी है…
ननी पालकीवाला का एक लेख पढ़ा था इजराइल के बारे में. लिखते हैं… भारत और इजराइल को एक दूसरे से बहुत कुछ सीखना है…. भारत को इजराइल से सीखना है कि एक गणतंत्र को कैसे चलाना चाहिए… इजराइल को भारत से सीखना है कि एक गणतंत्र को कैसे “नहीं” चलाना चाहिए…
मोदी जी इजराइल पहुंचे, यह एक ऐतिहासिक क्षण है. 70 सालों में किसी भी भारतीय नेता को यह नहीं सूझा… अब जब वो गए हैं तो सवाल उठता है कि वे वहाँ से क्या लेकर आएंगे. सिर्फ मेक इन इंडिया के एमओयू, रक्षा समझौते, नई तकनीक ले कर आएंगे… या वो सबक भी लेकर आएंगे जो यहूदियों ने औस्विज़ के गैस चैंबरों में सीखा था.