कसाई-ईसाई गिरोहों से जब ईश्वर के मामले में बात होती है तो हम अक्सर यह एकेश्वर और एकोपास्य का अंतर न समझने के कारण मात खा जाते हैं. समझते हैं ये अंतर क्या है.
वैसे सुधिजनों को इन दो शब्दों से ही अंतर समझ आ गया होगा, लेकिन चूँकि विषय लेकर कूदा हूँ तो कृपया साथ रहें.
एकेश्वरवाद की संकल्पना सनातन के लिए नई नहीं है. अपना इष्ट दूसरों के इष्ट से मूल रूप से अलग नहीं होता यह बात एक सनातनी के लिए स्वीकार्य है इसीलिए उसकी श्रद्धा दुराग्रह के खूँटे से बंधी नहीं होती. कई कथाएँ हैं, विस्तारभय के कारण एक ही संक्षेप में :
महाराष्ट्र के संत नरहरि सोनार (सोनी) शिवभक्त थे. उन्हें आज्ञा मिली कृष्ण के लिए मुकुट बनाने की तो बेमन से तैयार हुए. लेकिन शर्त रखी कि आँखों पर पट्टी बांधकर नाप लूँगा, शिव के अलावा अन्य को देखूंगा भी नहीं. शर्त मान्य हुई.
नरहरि जब पट्टी बांधकर नाप लेने लगे तो उन्हें कृष्ण की मूर्ति में शिव ही प्रतीत होने लगे. जटा, चंद्र, गंगा… जरा नीचे टटोल कर देखा तो गले में नाग भी… हड़बड़ाकर उन्होने पट्टी खोल दी तो कृष्ण की मुस्कुराती छवि दिखी.
खुद को ही कोसकर उन्होने पट्टी फिर से बांधी और नापने लगे तो शिव की ही निशानियाँ फिर से प्रतीत होने लगी. दो-तीन बार यह हुआ और उनके मन की आँखों पर से पट्टी उतर गई. एक तत्व का बोध हुआ.
वैसे जब हम “या देवी सर्व भूतेषु ____ रुपेण संस्थिता” कहते हैं तो उसमें भी एकेश्वरवाद का ही बोध है. हमारे लिए यह बात नयी थोड़े ही है?
लेकिन ये भेड़िये अपनी विचारधारा को अब, जब तलवार की धार से लागू नहीं कर पा रहे हैं, तो शब्दों की मीठी छुरी से काटने की कोशिश में हैं. इनकी बात को ये एकेश्वरवाद कहते हैं क्योंकि “एकेश्वर” में जो “एक ईश्वर” है वो हिन्दू को बहलाता है. उसी “एक ईश्वर” शब्दों से ये बहेलिये अपना जाल बिछाते हैं.
लेकिन इनका अंतस्थ-हेतु आप को एकोपास्यवाद की ओर खींचना है. केवल अल्लाह और मुहम्मद. या केवल गॉड और ईसा. “ये भी सत्य है” उन्हें स्वीकार्य नहीं, “ये ही सत्य है” ही स्वीकार्य होते हैं, यह फर्क है.
उसी एकेश्वर के अन्य रूप के सामने नतमस्तक होना इन्हें मंजूर नहीं होता और वो रूप उपलब्ध ही न रहे इसलिए उसे नष्ट कर देना ये अपना आवश्यक कर्तव्य समझते हैं.
एक प्रयोग आप कर सकते हैं. आप को जो मुसलमान या ईसाई प्रचारक मिले जो एकेश्वरवाद की हाँकता हो – मिलते हैं, बड़ी ही शहद भरी आवाज में कहेंगे कि हाँ सब एक ही है, यह जिसे आप राम या कृष्ण कहते हैं वो असल में अल्लाह ही है. हम बस यह संदेश आप को दे रहे हैं.
उनसे बस इतना कहिए कि बड़ा अच्छा लगा यह सुनकर, चलिये, मैं मंदिर ही जा रहा हूँ, नजदीक ही है, आप भी साथ हो लीजिये, मिलकर पूजा कर लेते हैं.
क्या होगा? आप समझदार हैं.
खड़ी मूर्ति पड़ी मूर्ति को एक बताकर किसी बाहरी लुटेरे की सड़ी लाश को पूजने का न्योता देनेवाला धूर्त मौलाना खड़ी मूर्ति के सामने कभी नतमस्तक नहीं होने वाला. यही समझने की आवश्यकता है.
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इस्लाम और ईसाइयत सब से पहले आक्रामक संस्कृतियाँ हैं, धर्म बाद में,
यही बड़ी बात हमें समझनी चाहिए.
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इसीलिए ये पंथ अपनी अलग पहचान बनाए रखने पर ज़ोर देते हैं और जिन पर आक्रमण किया है उनको जहां भी मौका मिले, कमतर बताने से बाज नहीं आते. एकोपास्यवाद के अपने-अपने दुराग्रह के कारण ही इनसे हमारा संघर्ष है.
केवल एकेश्वरवाद की बात होती और ये केवल धर्म के ही रूप में आते तो भारत में आज बारह अवतार होते, शुक्रवार और रविवार की आरतियाँ भी होती. जब ये समावेश की बातें करते हैं तो समादर की बात नहीं होती, आप की पहचान मिटाकर उनकी पहचान में खुद को ढालने की अनिवार्य शर्त होती है.
नहीं तो आप की पहचान के साथ आप का अस्तित्व भी मिटाने में इनको कोई हिचक नहीं होती. यही करते आए हैं ये, NCERT में बैठे मक्कार देशद्रोही वामी भी इस बात को पूरी तरह मिटा नहीं पाये हैं.
वैसे यह case to case है, सब पर लागू नहीं. शक्ति तंत्र में दीक्षित एक मुसलमान से परिचय था जिनकी योग्यता बहुत ऊपर की थी. महाकाल के मुसलमान भक्त भी जानता हूँ.
एक ऐसे ईसाई भी मित्र हैं जो मुंबई के “उद्यान गणेश” मंदिर के संस्थापक रहे हैं. बेटे का नाम “कृष्णपिङ्गाक्ष” है जो मुझे आज तक किसी ब्राह्मण गणेशभक्त के घर भी नहीं मिला.
कोल्हापुर हम किसी काम से गए थे तो महालक्ष्मी के मंदिर में पूजा में बैठे, बाकायदा खास धोती पहनकर. उनकी ही इच्छा थी, बल्कि दोनों का शुल्क भी उन्होंने ही दिया, मुझे देने नहीं दिया. होते हैं, लेकिन अपवाद ही होते हैं.
इदं न मम इदं राष्ट्राय.