पिछले दिनों भारतीय महिला क्रिकेटर मिताली राज से एक पत्रकार ने पूछा था कि आपका फेवरेट मेल क्रिकेटर कौन है, तो मिताली राज ने पत्रकार से ही प्रतिउत्तर में पूछा था कि क्या आप कभी यह सवाल पुरुष क्रिकेटर से पूछेंगे? यह उत्तर बहुत ही शानदार था या कहें उस प्रवृत्ति पर एक तमाचा था जो बार बार सफलता को पुरुष से जोड़ देती है.
जैसे ही दीपिका पादुकोण सुपरहिट फिल्में देने लगती है, उसे महिला शाहरुख खान या लेडी अमिताभ बच्चन की संज्ञा दे दी जाती है. हमारे मानक हमेशा ही पुरुष पर आकर टिक जाते हैं. यहाँ तक कि साहित्य में भी कोई वंदना राग जब बौद्धिक कहानी लिखती हैं, तो उनके विषय में कहा जाने लगता है कि वंदना राग की कहानियाँ इतनी बौद्धिक हैं कि वे स्त्री की कहानियां लगती नहीं हैं.
जैसे ही कोई स्त्री राजनीति पर बात करने लगती है उसे भरे मंच पर, फेसबुक पर ही यह कहकर टोक दिया जाता है आप कहानी बहुत अच्छी लिखती हैं, राजनीतिक आंकलन न किया करें.
हमने स्त्रियों के लिए विषय बाँट दिए, क्या लिखना, क्या करना, क्या खेलना, किन क्षेत्रों में नौकरी करना आदि आदि! क्या हम कभी इस सिंड्रोम से बाहर आ पाएंगे? क्या हम जो परिधि बनाए बैठे हैं, उनसे बाहर आकर स्त्री की स्वतंत्र सोच और पहचान को पहचान पाएंगे?
मिताली और धोनी दोनों को अलग अलग कर सोचेंगे, यह नहीं कहेंगे कि महिला टीम एकदम पुरुष टीम की तरह खेली! दोनों अलग, दोनों के लिए दायरे अलग हैं, खांचे अलग हैं! पहचान अलग है.
बहरहाल खुशी की बात यह है कि भारत की महिला क्रिकेट टीम ने पाकिस्तान की क्रिकेट महिला टीम को धुल चटा दी है. हालांकि न तो उनकी जीत के लिए दुआएं की गईं, न ही हवन हुए, न ही महामुकाबला जैसी चर्चाएँ हुईं, मगर इन सबके बावजूद वे जीत गईं.
दरअसल लडकियां खरपतवार होती हैं, अपना रास्ता खोज ही लेती हैं. अपनी पहचान बना ही लेती हैं. उपेक्षा की यह जीत बहुत बहुत मुबारक हो.