पिछले दिनों मध्यप्रदेश में हुए किसानों के आंदोलन ने आम आदमी के जीवन को थोड़ा तो हिलाया ही. दूध के दामों से फ़सलों तक और फिर प्याज़ की बम्पर पैदावार के बाद हुई अफ़रा-तफ़री से जान-माल के नुकसान के बाद अब हालात थोड़े ठीक हैं.
हालांकि, यह पहला मौक़ा नहीं था पर मुझे लगता है देश ने हँसते-हँसते कैसे भी हालात में जीना सीख लिया है. हमारी संवेदनाओं को असर ही नहीं होता. बदला भी क्या जाये और व्यवस्था से टकरा के भी क्या फ़ायदा? सवाल बने हुए हैं. जवाब भी एक नहीं.
नीरज पाण्डेय की ‘अ वेडनसडे’ में नसीरुद्दीन शाह अभिनीत पात्र कमिश्नर बने अनुपम खेर से बॉम्ब ब्लास्ट के बारे में पूछने पर जवाब में कहता है ‘हम बहुत जल्दी यूज्ड टू हो जाते हैं’. फ़िल्म का यह संवाद एक पल को सुन्न कर देता है. सच ही तो है दंगे या बॉम्ब ब्लास्ट के समय हमने अपने कुछ लोगों का हालचाल मालूम किया और ख़ैर मनाई. क्या सच में ऐसा नहीं है? क्या हो गया है हमें? क्या विचारधारा और पार्टी/धर्म के अलावा हम इंसान नहीं और हमारी संवेदनाओं में भावुकता नहीं?
मुझे केदारनाथ सिंह की एक कविता टुकड़ों में याद आ रही है जिसका सार यही है कि दुनिया की भागमभाग और समय की दौड़ में एक आदमी जो थैला उठाकर आटा, चावल, पुदीना, नमक आदि लेने जा रहा है दरअसल उसके और स्वाद के बीच में बाज़ार आ गया है. अब हमें इतनी फुर्सत नहीं यह सोचने तक की कि जो चावल हमें महंगे पैकेट में और बड़े बड़े शॉपिंग कॉम्प्लेक्स में रखा मिल जाता है वो बीज रूप में किसी खेत में उगता है. कविता के अंत में वो यही कहते हैं कि क्या ही अच्छा हो उसकी सुगंध लेने खेत में ही चला जाये! बड़ी ही सुंदर और अनोखी कविता है जो सचेत भी करती है कि चलते-चलते हम कहाँ आ गए!
खेत खलिहान में जब हम पहुँच ही गए हैं और प्रतिरोध की बात हो ही रही है तो मुझे बिमल रॉय की ‘दो बीघा ज़मीन’ की याद आ रही है. ऐसा ही बारिश का हरियाता मौसम… गाँव… किसान…. मिट्टी…. और अपने देश का सिनेमा. पता नहीं चीज़ें एक दूसरे से कैसे जुड़ती हैं पर जिस विचार से शुरुआत हुई है उसने भीतर तक उधेड़ा है.
‘दो बीघा ज़मीन’ कुछ ऐसा ही असर करती है जिसे देखने के बाद बहुत आसानी से शांत नहीं हुआ जा सकता. ‘दो बीघा ज़मीन’ पर मेरे पास कहने के लिए ज़्यादा कुछ नहीं. उतना ही जितना पिछली बार था. शायद अब भी वही पर हिन्दी सिनेमा की यह एक ऐसी फ़िल्म है जो ज़ेहन से निकलती नहीं.
गुरुदत्त और बिमल रॉय दो ऐसे फ़िल्मकार हैं जिनके बगैर हिन्दी सिनेमा मुकम्मल नहीं होता. और संयोग से 9 और 12 जुलाई की दो तारीख़ें दोनों ही फ़िल्मकारों का जन्मदिन भी होती हैं. इस पूरे महीने किसी न किसी रेफ़रेंस में इन दिनों का ज़िक्र होना लाज़मी ही है.
बहरहाल, ‘दो बीघा ज़मीन’ की सच्चाई आज से लगभग चौंसठ साल पहले जैसी थी आज भी वैसी की वैसी ही है. किसान का अपनी ज़मीन से प्रेम और कर्ज़ से लदे होने के बाद उसे बचाने की जद्दोजहद, बस यही है ‘दो बीघा ज़मीन’. पर इन दो सिरों के बीच एक बहुत बड़ी ज़िंदगी घट जाती है और जो सिनेमा बनता है वो भुलाए नहीं भूलता.
कभी-कभी लगता है कैसे एक फ़िल्मकार अपनी ज़िद से कहानी कहने का सपना देखता है और फिर धीरे-धीरे लोग जुड़ते चले जाते हैं. विश्व सिनेमा के ज़रिए तकनीक, कला, वाद आदि के बाद भी भारतीय कलाओं के लिए मुझे अपनापन ही लगता है और उस प्रेम के पीछे कोई तर्क नहीं. इस देश की हवा, पानी, मिट्टी से जनमी कोई भी बात और कला अपनी ही लगेगी और उससे जुड़ाव बहुत ही अलग किस्म का होगा.
यही ‘दो बीघा ज़मीन’ के मुख्य किरदार शंभू का लेखा-जोखा है. जो कुछ भी है, बस ज़मीन ही है. ज़मीन माँ है. हालांकि, शुरुआत बिलकुल देसी ढंग से बरसात की आस में टकटकी लगाए किसान की इच्छा और उसके आने पर उत्सव के मनाने की ही है. और फिर शुरू होता है जमींदारी के कारण अनपढ़ किसान की ज़मीन हड़प कर उसपर एक मिल लगाने का षड्यंत्र. सारे किसान अपनी ज़मीन दे चुके बस शंभू की ज़मीन बीच में है. ज़मीन हड़पने और बचाने की हसरतों के बीच बिमल रॉय बड़ा खेल रच देते हैं.
‘दो बीघा ज़मीन’ में ऐसे कई पल आते हैं जब यथार्थ से सामना होता है. ज़िंदगी किताबों या कहानियों से निकल कर अभिनीत होती दिखती है तो लगता है कि यही सच है. ज़िंदगी आखिर एक संघर्ष के साथ एक उम्मीद भी लगती है. हर मोड़ पर यह कहानी अंधेरे से उजाले का सुराख ढूंढ लाती है. आँसू और तकलीफ से दर्द तो बहता है मगर पीड़ा गायब हो जाती है.
जितना कुछ कहानी कहती है उतना ही दृश्यों के सिंबल्स भी. सीधे, सपाट पर मारक. जीवन का विस्तार इस कहानी के हर दृश्य में फैला हुआ है. प्रेम या अन्य कारण जीवन को उतना मायना नहीं देते जितना की ज़िंदगी की सच्चाई. हालांकि इस कहानी का मुख्य तत्व धरती से प्रेम ही है, मगर यह प्रेम कुछ अलग तरह का है.
मुझे लगता है यह भारतीय सिनेमा का सबसे बड़ा चित्र है जिसमें आम आदमी ‘हीरो’ है. इस फिल्म को देख कर कभी भी ज़िंदगी से मायूस नहीं हुआ जा सकता. कुछ साठ बरस हो गए फिल्म को बने हुए. अधिकतर कलाकार तो ज़िंदा भी नहीं, फिर भी फिल्म ज़िंदा है. और जो नहीं हैं वो …वो शायद अमर हो गए हैं जैसे बलराज साहनी, निरुपा राय, सलिल चौधरी, शैलेंद्र, बिमल रॉय.
इसे देखते हुए हर बार लगा ये है फिल्म.. ये है सिनेमा… ये है कहानी…. ये है पटकथा. पहली बार जब यह फिल्म देखी तो आखिर तक एक आस थी कि कैसे भी हो शंभू महतो अपनी ज़मीन बचा लेगा.. जमींदार का कर्जा चुका देगा… कुछ भी हो फिल्म का सुखद अंत होगा, फिर चाहे उसकी बीबी मर जाये या कुछ भी हो जाए…. आखिर सेकंड तक उम्मीद थी कि चमत्कार होगा…! और अंत में ज़िंदगी जीत गयी, बिमल दा ने महान सिनेमा रच दिया, (नग्न) सच की जीत होती है और शंभू.. वो हार जाता है… ‘दो बीघा ज़मीन’ नही बचा पाता शंभू!
शंभू महतो के रूप में बलराज साहनी की आँखों में सुख चुके आँसू हिन्दी सिनेमा की धरोहर हैं. कला बस यही कर सकती है. वो समय को दर्ज तो करती ही है, एक चेतावनी बनकर घड़ी की तरह चुपचाप चलती भी रहती है. इस फ़िल्म को देखते हुए अचानक से हम पचास साल पहले जा पहुँचते हैं और आश्चर्य तो तब होता है जब आज का समय भी वहीं दिखाई देता है.
क्या यह नैराश्य की कहानी है? अगर शंभू एक किसान हो कर ज़मीन बचाने के लिए सब कुछ दांव पर लगाकर भी कुछ नहीं बचा पाता तब भी मुझे किसी रूप में यह अवसाद की कहानी नहीं लगती. इस फ़िल्म के ‘ट्रीटमेंट’ पर बहुत बात की जा सकती है जब दुनिया की उथल-पुथल और आर्थिक-सामाजिक-राजनैतिक हालातों के चलते आए ‘निओ-रियलिज़्म’ ने कलाकार बिरादरी को बेचैन कर दिया था. पर बात तो यहीं छुपी है जब हमने आज की बात की शुरुआत की थी – संवेदनाओं की. वो समय क्या रहा होगा जब कला अद्भुत रच रही थी. हमसे तो कुछ नहीं हो रहा ! फिर से इंतज़ार है कि कला दुनिया को बदलने में एक निर्णायक भूमिका निभाए.