मेरा एक स्टूडेंट है. पीडियाट्रिक्स में MD करने के बाद एक जिले में प्रैक्टिस करता है. छात्र बहुत अच्छा इंसान, बुद्धिमान एवं कर्तव्यनिष्ठ चिकित्सक है.
मुझे उसने इनबॉक्स कर मरीजों और उनके इलाज से सम्बंधित एक पीड़ा व्यक्त की और एक लेख लिखने कहा. दरअसल उसकी जो पीड़ा और प्रश्न है वह मेरा भी हूबहू पहले से ही मन रहा है.
इस पर एक यूट्यूब वीडियो भी अपलोड किया था लेकिन पूरा फ़ोकस उस वीडियो में इस मुद्दे पर नहीं था.
तो उसका जो प्रश्न इनबॉक्स पर था वह कुछ इस तरह था.
“आदरणीय सर,
मैं जिस जिले में प्रैक्टिस करता हूँ वहाँ सभी चिकित्सक शिशु को दस्त होने पर माँ का दूध बंद करवा देते हैं. जबकि मेडिकल कॉलेज में मां का दूध बंद कराने ज़ैसे किसी उत्तर पर हमें फेल तक कर दिया जाता. किसी शोध पत्र, विश्व स्वास्थ्य संगठन और किताब में इस तरह का कोई शोध पत्र नहीं मिला जहाँ दस्त होने पर माँ का दूध बंद कर देने की सलाह हो. वरन साफ़ लिखा है हज़ारों शोध पत्रों और यूनिसेफ, विश्व स्वास्थ्य संगठन, भारतीय चिकित्सा गाइडलाइन्स में क़ि माँ का दूध ज़रूर देते रहना चाहिए.
सर मैंने जब उन शिशु रोग विशेषज्ञों और चिकित्सकों से बात की इस सबंध में तो उनका कहना था क़ि दस्त होने पर लैक्टोस इनटॉलेरेंस (दूध को पचाने वाला एंजाइम कम होने से उत्पन्न दस्त ) हो जाता है जिसे मात्र हर तरह का दूध बंद कर ही ठीक किया जा सकता है.”
अब इसका तार्किक, वैज्ञानिक विश्लेषण निम्न है.
1. किसी भी एविडेंस बेस्ड मॉडर्न मेडिसिन (जिसे allopath कहते हैं लोग) के किसी भी recomendation में माँ का दूध बंद करना नहीं कहा गया है. ज़ाहिर है ऐसा लाखों बच्चों में वर्षों तक चले शोधों के बाद है.
ऐसे में चिकित्सकों का माँ का दूध बंद करने कहना न सिर्फ उस बच्चे, परिवार का गंभीर नुकसान वरन उनके गाँव, मोहल्ले में ‘दूध से दस्त होते हैं’ की धारणा को स्वयं चिकित्सक द्वारा पुष्ट कर देश की तरक्क़ी और जीडीपी पर अरबों रूपये का बोझ बढ़ाता है. कैसे??!!!
देखिये, माँ का दूध ही सिर्फ 6 माह तक शिशु को दिया जाना चाहिए पानी भी नहीं. माँ का दूध सर्वक्षेष्ठ प्राकृतिक टीकाकारण है जो कि रोगप्रतिरोधक क्षमता को बढ़ा कर कीटाणुओं और एलर्जी से रक्षा करता है. जीवनपर्यंत.
ऐसे में मात्र 4 दिन के लिए भी मां का दूध बंद करना माँ को दूध आना कम करवा सकता है. क्योंकि दूध न पिलाने पर प्रकृति दूध ख़त्म कर देती है. फिर यह शिशु प्रतिमहीने हज़ारों रूपये के डब्बा बंद या गाय के निम्न गुणवत्ता के दूध पर निर्भर हो जाता है. कम रोगप्रतिरोधक क्षमता, कम बुद्धिमत्ता और कम प्रतिभा मिल पाती है . बीमारियों का खर्च, बोतल दूध का खर्च, कुपोषण, कम स्किल की पीढ़ी बनना देश को बरसों पीछे करता है और अरबों का बोझ प्रतिवर्ष देश पर पड़ता है.
स्वयं विज्ञान को मानने वाले व्यवसाय से जब यह सलाह आती है तो उसका इम्पेक्ट वृहत होता है.
शिशु रोग विशेषज्ञ की इस सलाह की नक़ल अन्य जनरल practitioanar, आयुर्वेद, होमियोपैथ नर्स, बिना डिग्री वाले चिकित्सक, दाई, इत्यादि करने लगते हैं.
मां का दूध बंद करवाने पर भी दस्त ज़ल्दी ठीक नहीं होते.
साथ ही शिशु माँ का दूध न मिलने पर चिड़चिड़ा और कमज़ोर हो जाता है. माँ भी इस एक हफ्ते मे शिशु के चिड़चिड़ेपन से परेशान रहती है. कुल मिलाकर अनगिनत दीर्घकालिक नुकसान के साथ ही कोई तात्कालिक लाभ भी नहीं है.
2. 6 माह से छोटे शिशु में दस्त का मुख्य कारण फिजियोलॉजिकल होता है. फिजियोलॉजिकल अर्थात सामान्य शारीरिक प्रक्रिया. जिसमें अधिकांशतः किसी इलाज की आवश्यकता नहीं होती . फिजियोलॉजिकल दस्त बच्चे को लेशमात्र भी नुकसान नहीं पंहुचाते भले 2 माह तक रोज़ाना 12 बार भी हों. अतः जो सामान्य है उसे ठीक करने की ज़रूरत भी नहीं होती.
लेकिन दस्त फिजियोलॉजिकल हैं या बीमारी वाले यह निर्णय शिशु रोग विशेषज्ञ ही ले पाते हैं. इसलिए शिशु को दिखाएं भले वे कोई दवा न लिखें मात्र आपको तसल्ली दे दें.
दूसरा सबसे ज़्यादा होने वाला कारण rota virus नाम का वायरस है. यह पानी की कमी, भर्ती, और शिशु मृत्यु का एक प्रमुख कारण है. इसमें इलाज़ की ज़रूरत है.
इसके बचाव का टीका अब सरकारी अस्पतालों और प्राइवेट में उपलब्ध है. जो क़ि 6 सप्ताह के से 4 माह के शिशु को पिलवाया जाता है.
प्राइमरी लैक्टोस इनटॉलेरेंस (दूध में मौजूद लैक्टोस नाम की शक्कर) बेहद रेयर समस्या है.
सेकेंडरी लैक्टोस इनटॉलेरेंस स्वयं 10 दिन में ठीक हो जाता है. इसलिए माँ का दूध बंद करना एक अवैज्ञानिक सलाह है.
दस्त रोकने दी जाने वाली कुछ दवाएं ज़ैसे लोमोफेन, lamotil बच्चों में उपयोग करना वर्ज़ित है. बेहद नुकसानदायक हो सकती हैं. आँतों में रुकावट, सुस्ती, गंभीर संक्रमण का शिकार हो सकता है बच्चा.
किंतु फिर भी कुछ चिकित्सक अपने मरीज़ को तुरंत ठीक करने के मानसिक दबाव में आ कर यह लिखते हैं.
बहुत से माता पिता भी चिकित्सक पर तुरंत ठीक करने का अपेक्षाओं का दबाव बनाते हैं. जबकि वायरल दस्त 3 से 12 दिन ले सकते हैं ठीक होने में.
लेकिन प्रिय छात्र यदि थोड़ा सा समय माता पिता को समझाने में लगाओगे यह वैज्ञानिक पहलू, तो 90 प्रतिशत से ज़्यादा माता पिता धैर्य रखेंगे और आपको छोड़ कर नहीं जाएंगे. वैसे भी स्वयं के और विज्ञान के सच, अपने मरीज़ की भलाई कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है बनिस्बत जो अभागे अभिभावक आपको नहीं समझ नहीं पाए इस पर ध्यान देने के.
3. दस्त में कराई जाने वाली स्टूल की जांच ज़्यादातर केसेस में व्यर्थ है, अवैज्ञानिक है एवं अविश्वनीय है.
स्टूल की जांच में दिखते कीटाणु मानव की आँत में मौजूद लाभकारी consensual E.Coli कीटाणु होते हैं. और स्टूल में बैक्टीरिया न दिखें यह कैसे हो सकता है?
Reducing शुगर भी एक unreliable तथ्य है.
इसलिए यह जांच अधिकांशतः misleading जांच है.
अंत में सभी साथी चिकित्सकों को Happy doctors Day..
Scientific रूप से updated रहना हमारी जिम्मेदारी है.
देश भक्ति का एक हिस्सा है. और प्रिय छात्र तुम्हें पास होने के बाद भी सीखते और सीखों का पालन करते देख खुशी हुई.
God bless you always…
स्वस्थ जन
समृद्ध राष्ट्र
आपका डॉ अव्यक्त