मोदी जी के गौरक्षकों और गौ रक्षा को लेकर कुछ हुयी घटनाओं पर आए बयान से हिंदुओं का बहुत बड़ा वर्ग दुखी और आक्रोशित है.
लोगो का दुख और आक्रोश अपनी जगह बिल्कुल सही है लेकिन मेरी सोच और इस मामले में मेरा आंकलन बिल्कुल अलग है. मैं यह भी जानता हूँ कि मेरी सोच को लेकर तीव्र प्रतिक्रिया होगी लेकिन मैं किसी की भी उलझनों का या फिर उनके प्रश्नों का उत्तर नहीं दूंगा.
मेरा अपना मानना है कि मोदी जी यह एक इमेज बिल्डिंग कर रहे हैं और गौ रक्षकों को लेकर दिया गया वक्तव्य, उनके समर्थकों के लिये नहीं है. He is playing to the gallery. He is unsure of how to handle things if lynching becomes a form of street justice in India. He is avoiding confrontation with the enemy of the nation right now.
इस वक्त मोदी जी का पूरी तरह फोकस कश्मीर पर है और पाकिस्तान की टूटन पर है. यह जितना आसान भारतीयों को लगता है, वह उसके विपरीत उतना ही चीन के कारण कठिन होता जा रहा है.
इसके साथ यह एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि यह मोदी जी बार-बार गांधी की बात क्यों करते है? जिस व्यक्ति के बारे में वह अच्छी तरह से जानते है कि आज भारत की समस्या की जड़ इस व्यक्ति की सार्वभौमिक अव्यवहारिकता थी, उसी को हर जगह चिपका रहे है?
भाई, इसमें ज्यादा अक्ल मत लगाइये, दुनिया मे गांधी बिकता है और मोदी जी अपने भारत की परिकल्पना के लिये, हर वह चीज़ बेचेंगे जो ज़माने में बिकती है. इसलिए मोदी जी, गांधी की आत्मा को अपने अंदर डाले हुये नज़र आते है.
यह बिल्कुल जरूरी नहीं है कि उनके इस नाट्य रूपांतर को मैं सहमति दूँ लेकिन मुझे लगता है कि वह यही समझते है कि भारत अभी किसी बड़ी अराजकता के लिए तैयार नहीं है.
उनको यही लग रहा है कि भारत, अपनी आर्थिक और सामरिक समीकरणों को अभी इतना मजबूत नहीं कर पाया है कि वह गौ हत्या पर हो रही हत्याओं के प्रचार को, वैश्विक मंच पर दरकिनार कर सकें.
उनको पूरा एहसास है कि विश्व के प्रचार तंत्र पर वामियों, प्रो इस्लामिक लिबरल्स का ही कब्ज़ा है और इनसे कन्फ्रन्ट करने की मोदी जी की अभी स्थिति नहीं है.
He is buying time.
उनका इस मामले में इस तरह से बोलना एक दोधारी तलवार है, जहां एक तरफ उनको दुनिया को अहिंसा का पुजारी बने हुये दिखाना है और वही अपने समर्थकों में उपजे असन्तोष व आक्रोश को भी सीमित करना है.
अब इन समर्थकों के बढ़े हुये आक्रोश का कोई इलाज नहीं है और मैंने भी उनको समझाना छोड़ दिया है क्योंकि उनकी भावनाओं का ज्वार-भाटा उठता और बैठता रहता है. ये लोग मोदी हाय-हाय करके उनको गरियाते रहेंगे और मोदी जी फिर 6 महीने में ऐसा कुछ कर देंगे कि फिर वह नमो-नमो करने लगेंगे.
यह हम भारतीयों की बदकिस्मती रही है कि हमें भारत के लिये आगे के 10-20 वर्ष को देख कर लिये गये निर्णयों की आदत नहीं है. हम शुरू से ही आज जो मिल रहा है या कल जो मिलने का वादा किया गया है, उसी भावना में जीते और मरते हैं. लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि दूरगामी नीतियां अपना निर्माण भावनाओं के आधार पर नहीं करती.
हमारा यह दुर्भाग्य रहा है कि पिछले 70 वर्षों में भारत ने 50 के दशक में सिर्फ हैवी इंडस्ट्री की स्थापना के अलावा कोई भी दूरगामी नीतियों का निर्माण और उनका क्रियान्वयन होते हुए नहीं देखा है और यही हमारे आगे का कुछ न समझ पाने की उलझन और झल्लाहट का कारण है.
मित्रों, अपने आक्रोश को लगाम देते हुये यह सत्य समझ लीजिए कि यह लोकतंत्र है जिसमें भारत की 80% व्यवस्था राष्ट्रवादिता की विरोधी या तटस्थ है. बहुसंख्यक जनता आज भी आपकी विरोधी है.
यह कोई सड़क की लड़ाई तो है नहीं, जहाँ भारत का विधान लिखा जाना है, वह एक संवैधानिक दायरे में ही लिखा जाना है. हम राष्ट्रवादियों को एक सत्य का अभी भी आभास नहीं है कि भारत एक बार फिर टूटने से, सिर्फ 5 वर्षो से बच गया है.
हमें उस बुरी स्थिति में पहुंचा दिया गया था जहाँ, 2014 में सोनिया की यूपीए की 5 वर्ष की सरकार और आ जाती तो हम भारत और हिंदुत्व को अंधेरे में धकेल चुके होते.
हम एक नियति से बंध चुके हैं और मोदी जी वही करेंगे जो उन्होंने अपनी समयसारणी के हिसाब से सोच रखा है. उनमें पूरी वह माद्दा है जहां वह अपने समर्थकों के कटु वचनों को सुन और समझ सकते हैं.
उन्हें जब भी अपने से दूर हुये समर्थकों को वापस अपनी गुल्लक में डालना होगा वह कोई तुरुप की चाल चल देंगे और लोग फिर 56 इंच के सीने का जाप करने लगेंगे.
वैसे जो हो रहा है उसे होने दीजिए, वो महात्मा गांधी बनते दिख रहे है, उसका संज्ञान ही मत लीजिये. नवम्बर-दिसम्बर का इंतज़ार करें, कुछ बड़ा होगा, यह पक्का है.
2018 एक अलग वर्ष होगा. वैसे 2017 के जाड़े से हवा उल्टी बहने लगेगी. तब तक आप मन की बात की तरह अहिंसा और सेक्युलरता के पूजक महात्मा मोदी जी के व्याख्यान सुनते रहिये.