अपने बुज़ुर्ग नेताओं के अपमान का कांग्रेसी इतिहास

पिछले दिनों राष्ट्रपति पद के लिये, भाजपा द्वारा लालकृष्ण आडवाणी जी को मनोनीत न किये जाने पर मीडिया और सोशल मीडिया पर विपक्षियों के साथ समर्थकों ने बहुत कुछ कहा और सुना है. ऐसा ही कुछ वातावरण 3 वर्ष पूर्व भी था. उसी वक्त मैंने यह लेख लिखा था और यदि आज भी मुझे इस विषय पर लिखना होगा तो यही लिखूंगा.

बात तो कुछ नयी नहीं है लेकिन फिर भी दिल है कि चुप रहने को मान ही नहीं रहा है. वैसे तो ‘भाजपा’ के विरोधी दल और महान भारत के, महान पत्रकार बंधु एवं बुद्धिजीवी वर्ग, कई महीनो से आडवाणी जी और मुरली मनोहर जोशी जी के घटते महत्व से चिंतित थे और कल के बाद तो लग रहा है कि किसी के भी अश्रु रुक ही नहीं रहे है. उनके द्वारा मीडिया और सोशल मीडिया पर, परिवार के बड़े-बुजर्गो के बारे में नसीहतें देने का एक से एक कर्यक्रम चल रहा है.

मेरे लिए यह बड़ा अजीब और हृदय विदारक दृश्य है. यह देख कर बड़ा अच्छा लगा कि ‘भाजपा’ के कटु आलोचकों को (कुछ समर्थक भी है), ‘भाजपा’ में एक युग की समाप्ति और नए युग के प्रतिस्थापित होने पर कितनी चिंता हो रही है.

मुझे इनका रोना तो समझ में आता है क्योंकि समय की कसौटी में चूक गए सेनापति हमेशा विरोधी को विजय की आस देते हैं. आडवाणी जी की पीढ़ी पर इन्होंने विजय पायी हुई है और विपक्ष फिर उसी पीढ़ी को ही चाहता है.

अब आज, आडवाणी जी और जोशी जी के गृहस्थ आश्रम से वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करने से विपक्ष के लिये पुराने किसी भी पर्दे में छिपे समीकरणों के पुनर्जीवित होने की संभावना ही समाप्त हो जाती है.

हालांकि दोनों बुजर्गो ने, बाकी लोगों की तरह, समय की इबारत पढ़ने में बड़ी देर कर दी है, इसलिये जिस अपेक्षित सम्मान से उन्हें वानप्रस्थ आश्रम को प्रस्थान करना था उसमे कहीं कमी जरूर रह गयी है, जिसका मुझे हमेशा दुख रहेगा.

इन दोनों को एक बात की ख़ुशी तो जरूर होगी कि जिन लोगो के खिलाफ जिंदगी भर ये बुजुर्ग लड़ते रहे, वे उनके अस्ताचल जाने पर दहाड़े मार-मार के रो रहे है. कुछ रवीश जैसे लोग तो अपने कुर्ते तक फाड़ कर, छाती पीटपीट कर मुहर्रम का जलूस भी निकल रहे हैं.

एक बात बड़ी मारक कही जा रही है कि ‘भाजपा’ ने अपने परिवार के बुजर्गो को सम्मान नहीं दिया है. वो लोग इतनी संजीदगी और मासूमियत से यह सब कह रहे हैं कि मेरे भी आंसू निकल आये हैं. यह बात और है कि मेरे यह आंसू दुःख या दर्द से नहीं निकल रहे है बल्कि इन पाखंडियों के हास्य अभिनय पर निकल रहे हैं.

हद है भाई! चिरकाल से राजनीति में, चाहे राजशाही रही हो या लोकतांत्रिक व्यवस्था हो, केवल एक ही बात सत्य है और वह यह कि जो समय के साथ चलता है, समय की मांग समझता है और समय का स्पंदन महसूस करता है, वो ही सक्रिय राजनीति की धुरी बना रहता है.

जो लोग समय में ही जकड़े रह जाते हैं, जो वर्तमान को भूतकाल में जीते हैं और जो भविष्य के बदलाव को नकारते हैं, वे राजनीति के हाशिए पर समय द्वारा ही समेट दिए जाते है. जो आज बुजुर्गियत के मान और अपमान को लेकर रो रहे हैं उसमें कांग्रेस का तो इतिहास ही एक परिवार द्वारा बुजुर्गों को हाशिये पर निपटाने का रहा है.

इंदिरा गांधी ने तो कांग्रेस ही तोड़ दी. कामराज एंड कंपनी को चलता किया और यहां तक उनकी खुद की पार्टी के आधिकारिक राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को हरवा दिया था. इमर्जेंसी में तो युवा सम्राट संजय गांधी द्वारा बुजुर्गों से जूता उठाई से लेकर लतियाने का पूरा इतिहास ही रहा है.

फिर 1977 के बाद देवराज उर्स, जो कर्नाटक में कांग्रेसी जीत के नायक थे, जिन्होंने नई कांग्रेस इंदिरा गांधी के लिए गढ़ी थी, उन्ही उर्स जी को इंदिरा गांधी ने लतिया कर निकाल दिया था.

राजीव गांधी तो और भी माशाल्लाह थे. उन्होंने इंदिरा गाँधी के सर्वश्रेष्ठ दरबारी सरदार जैल सिंह, जिन्हें राष्ट्रपति पद अपनी स्वामिभक्ति के पुरस्कार स्वरूप मिला था, उनकी, राष्ट्रपति जैसे संविधान के उच्चतम आसन पर विराजमान होने के बाद भी, दिन-रात बेइज्जती की थी.

सोनिया गांधी तो सीताराम केसरी जैसे बुज़ुर्ग को गर्दन से पकड़ कर कमरे से बाहर कर के, कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर बैठी थीं. अर्जुन सिंह तो सोनिया गांधी से बेइज्जत होते-होते इस दुनिया को ही छोड़ गये. मनमोहन सिंह तो न सिर्फ सोनिया से खुद ही बेइज्जत हो के प्रधानमंत्री बने रहे बल्कि उनके गांधी युवराज, राहुल गांधी के हाथों भरी सभा में सार्वजनिक रूप से बेइज्जत होते रहे हैं.

जहाँ तक अन्य पार्टियों का मामला है, उनका इतिहास और वर्तमान दोनों ही इसी तरह बुजुर्गों को अस्ताचल भेजने से भरा पड़ा हुआ है.

मैंने सिर्फ इस लिए इतिहास के पन्ने पलटे हैं ताकि जो घड़ियाली आंसू रो रहे हैं और जो उन आंसुओं के देख कर अपना गला रुँधा पा रहे हैं, वो पहले अपनी कमीज और पैंट उतार के देख लें कि उनकी बनियान और चड्ढी में कितने छेद है.

यह राजनीति है. जो सामर्थ्यवान होता है और जिसके साथ जनता होती है वो ही आगे आता है. यहां जब भी किसी ने आंकलन गलत किया है उसका सर ही कलम होता है.

इसी ‘भाजपा’ में कल्याण सिंह ने गलत आंकलन किया और समाप्त हो गये, यदि उन्होंने राजनाथ सिंह और लालजी टंडन से निपटने का गलत मार्ग न चुना होता और पार्टी से अलग नहीं होते तो आज मोदी जी के जगह वही होते. केशु भाई पटेल गुजरात में समय को न पहचान अपनी राजनैतिक आत्महत्या नहीं करते तो आज कहीं और होते.

फिर भी ‘भाजपा’, को धन्यवाद है जहाँ बाहर से और जनता से लुटे-पिटे बुजुर्गों को न केवल स्वीकार किया गया है बल्कि उनको उच्चित सम्मान से नवाजा भी गया है.

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