ड्राइंग रूम में बैठकर, वामपंथी चश्मा पहनकर, हवा हवाई लेखन ने सबसे अधिक हिंदी साहित्य का नुकसान किया. क्योंकि पाठक तो जमीन पर रहता है वो इनके लिखे झूठ और एकतरफा तथ्यों को पकड़ लेता है, यही कारण है जो वो हिंदी की किताबों से दूर होता चला गया.
इसका कटु अनुभव अनेक बार मुझे भी हुआ. उनमें से एक तो बड़ा मजेदार है. हुआ यूं कि उन दिनों में जम्मू कश्मीर में था और श्रीनगर से लेकर लेह आना-जाना लगा रहता था. साथ ही अपनी किताब ‘स्वर्ग यात्रा’ भी लिख रहा था तो ज़मीनी हकीकत के साथ उपलब्ध लिखित सामग्री भी जहां जैसे मिले पढ़ने के चक्कर में रहता.
तभी मेरे हाथ लद्दाख के ऊपर लिखी गई एक हिंदी पुस्तक लगी. पढ़ने पर मुझे लगा कि इसमें कितनी अधिक एकतरफा जानकारी दी गई है. लेखिका हिंदी साहित्य में नामी है (यहां नाम महत्वपूर्ण नहीं, आम पाठक उन्हें नहीं जानता और ना ही जाने तो बेहतर है) इसलिए सोचा कि उनसे सम्पर्क करके स्पष्टीकरण लूँ, हो सकता है उनके पास कोई विशेष स्रोत हो जो मेरी जानकारी में नहीं.
फोन करने पर वो लगी मुझे बताने कि उन्होंने वहाँ खुद तीन दिन रह कर सारे तथ्य इकठ्ठे किये हैं. जिसे सुन कर मुझे थोड़ा अटपटा लगा, जो जगह एक टूरिस्ट तीन दिन में पूरा नहीं घूम सकता उसे एक लेखक ने तीन दिन में समेट दिया.
और जब मैंने यह कहा कि आप तो मात्र तीन दिन रही हैं मगर मैं तो पिछले तीन साल से यहां लगातार आ रहा हूँ और अब भी अपने को यहाँ की जानकारी के मामले में आधा अधूरा ही पाता हूँ. सुन कर उन्होंने पहले मुझे झिड़का और फिर फोन पटक दिया.
दिल्ली के एक लेखक जो प्रोफेसर भी रहे हैं उनसे बात की तो तुरंत कहने लगे कि तुम लोग अपना संघी इतिहास क्यों नहीं लिख लेते. मुझे यह बात बड़ी अजीब लगी. जिस के बाद मैं उन्हें यह कहने पर मजबूर हुआ कि जिस ‘श्रीनगर’ के नाम में ही ‘श्री’ है और जहां गुलमर्ग का असली नाम गौरीमार्ग रहा है उसमे कोई संघी क्या कर सकता है. क्या नामों में श्री और गौरी का होना भी संघी साजिश है.
यह तो मात्र प्राथमिक जानकारी है ऐसे अनेक तथ्य और प्रमाण हैं जिसे किसी संघी ने जा कर सदियों पहले नहीं रचे. तर्क और तथ्य पर कोई जवाब ना देकर उन्होंने अपना वही राग जपना जारी रखा और मैं संघी घोषित होकर उनके पास से खाली हाथ लौट आया.
एक कलकतिया विद्वान् एक बार किसी घटना पर फेसबुक पर ऊटपटांग लिख रहे थे जब मैंने प्रतिक्रिया में यह लिखा कि आप झूठ क्यों लिखते हैं मैं तो श्रीनगर में ही हूँ और आप का लिखा गलत है तो उन्होंने मुझे ब्लॉक कर दिया.
हिंदी लेखन में झूठ के ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे, जिसे आम आदमी पकड़ लेता है. इतिहास को समझना कोई रॉकेट साइंस नहीं. और अगर यह विज्ञान है भी तो मैं तो ठहरा विज्ञान और तकनीकी का छात्र, तो सवाल उठता है कि मुझे नहीं समझ आये और किसी कला के छात्र या प्रोफ़ेसर को ही समझ आये जरूरी तो नहीं.
इन दिनों मैं हिंदुत्व में प्रकृतिवाद पर एक किताब लिख रहा हूँ. जिसके कारण सनातन साहित्य का अध्ययन कर रहा हूँ. पढ़ने पर यह जानकर हैरान होता हूँ कि बिना किसी प्रमाण के हबीब और थापर जैसे इतिहासकारों ने कितना झूठ प्रचारित कर रखा है.
आर्य बाहरी आक्रमणकारी थे इसका एक भी प्रमाण नहीं, उलटे वे यहीं के थे उसके अनेक प्रमाण है मगर फिर भी यह झूठ चलाया गया. जिस पर विस्तार में पूर्व में एक लेख मैं लिख चुका हूँ.
ठीक इसी तरह सिंधु घाटी सभ्यता और कुछ नहीं बल्कि वैदिक सभ्यता ही थी, फिर भी दोनों को अलग-अलग बतला कर भ्रमित किया गया. यह सभ्यता सिर्फ सिंधु नदी के किनारे तक ही सीमित नहीं थी बल्कि हरियाणा और गुजरात और दूर-दूर तक फ़ैली हुई थी जिसके प्रमाण मिल रहे हैं.
यह प्रमाणित करता है कि वैदिक सभ्यता को स्थापित करने वाले, वेदों की रचना करने वाले आर्य, कोई और नहीं हमारे पूर्वज ही थे. वे विकसित थे और प्रकृति पूजक थे.
एक वामपंथी सज्जन बहस करने लगे कि प्राचीन ग्रंथों में गाय का उल्लेख नहीं है. अब मैं उन्हें यह मूल बात कैसे समझाता कि सभ्यता का विकास रात भर में नहीं होता. यह एक लम्बी प्रक्रिया है.
यह ठीक है कि ऋग्वेद में काफी बाद में गौ के महत्व को रेखांकित किया गया है जहां कालान्तर में ही गौ हत्या पर प्रतिबंध की बात की जाने लगी थी.
यही तो मेरा उनसे तर्क था कि सनातन संस्कृति का विकास समय के साथ धीरे धीरे हुआ है, अनुभव और चिंतन से, जो यह प्रमाणित करता है कि हमने प्रकृति से सीखा, जिसमें समय लगना स्वाभाविक है, यह वो संस्कृति नहीं, जहां किसी आसमानी किताब या किसी आसमानी आदमी के कहे अनुसार एक सभ्यता रातों रात खड़ी कर दी गई हो.
मगर वो यह बेसिक बात समझने को तैयार नहीं और अपने वामपंथ के नशे में डूब कर हिन्दू और सनातन सभ्यता को आज भी किसी तरह हेय सिद्ध करने में जुटे हैं.
आखिरकार ये बौद्धिक गिरोह ऐसा क्यों करता रहा है? इसका कारण ढूंढने पर समझ आता है कि इतिहास के वर्तमान स्वरुप का लेखन पश्चिम ने शुरू किया.
और भारत में हमारे हजारों साल पुराने सनातन इतिहास को सर्वप्रथम मिशनरियों ने लिखना शुरू किया. जिनका उद्देश्य हमारे सनातन धर्म को किसी तरह से भी जाहिल और जंगली सिद्ध करना था, जिससे अधिक से अधिक लोग धर्मांतरित हो सके.
यह बात समझ आती है. बाद में ईस्ट इंडिया कंपनी और फिर अंग्रेज शासन ने हमारा इतिहास लेखन करवाया, उसमें भी उनका उद्देश्य अपने साम्राज्य की भलाई देखना समझा आता है.
मगर आज़ादी के बाद वामपंथी लेखकों द्वारा नेहरू के इशारे पर इतना एकतरफा इतिहास का लेखन क्यों किया गया, पूरी तरह समझ नहीं आता. जितना नुकसान अंग्रेज दो सौ साल में नहीं कर पाए उससे कही अधिक नुकसान सत्तर साल के लेखन द्वारा किया गया, आखिरकार क्यों, यह तो बिलकुल समझ नहीं आता.
बहरहाल इसके कारणों को जानने से अधिक जरूरी है इस इतिहास को ठीक करना, प्रमाण व तथ्य और तर्कों के साथ, वो भी वैज्ञानिक आधार पर. चिंता इस बात की है कि सत्तर साल के कचरे को साफ़ करने में ना जाने कितना वक्त लग जाए. क्या भारत इतनी देर सब्र कर पायेगा?
उससे अधिक चिंता की बात है कि बिना सांस्कृतिक जड़ों के क्या देश फलफूल पायेगा? मजबूत इमारत के लिए नींव का मजबूत होना जरूरी है. आइये, अधिक से अधिक सही लिख-पढ़ कर हम नींव का पत्थर बनें.