महाभारत में जब यक्ष धर्मराज युधिष्ठिर से सवाल करते हैं कि ‘भूमि से भारी कौन?’ तब युधिष्ठर जवाब देते हैं, ‘माता गुरूतरा भूमेः युधिष्ठिर द्वारा माँ के इस विशिष्टता को प्रतिपादित करना यूं ही नहीं है आप अगर वेद पढ़ेंगें तो वेद माँ की महिमा बताते हुए कहती है कि माँ के आचार-विचार अपने शिशु को सबसे अधिक प्रभावित करतें हैं. इसलिये संतान जो कुछ भी होता है उसपर सबसे अधिक प्रभाव उसकी माँ का होता है. माँ धरती से भी गुरुत्तर इसलिये है क्योंकि उसके संस्कारों और शिक्षाओं में वो शक्ति है जो किसी भी स्थापित मान्यता, धारणाओं और विचारों की प्रासंगिकता खत्म कर सकती है.
इन बातों का बड़ा सशक्त उदाहारण हमारे पुराणों में वर्णित माँ मदालसा के आख्यान में मिलता है. मदालसा राजकुमार ऋतुध्वज की पत्नी थी. ऋतुध्वज एक बार असुरों से युद्ध करने गये, युद्ध में इनकी सेना असुर पक्ष पर भारी पड़ रही थी, ऋतुध्वज की सेना का मनोबल टूट जाये इसलिये मायावी असुरों ने ये अफवाह फैला दी कि ऋतुध्वज मारे गये हैं. ये खबर ऋतुध्वज की पत्नी मदालसा तक भी पहुँची तो वो इस गम को बर्दाश्त नहीं कर सकी और इस दुःख में उसने अपने प्राण त्याग दिये. इधर असुरों पर विजय प्राप्त कर जब ऋतुध्वज लौटे तो वहां मदालसा को नहीं पाया. मदालसा के गम ने उन्हें मूर्छित कर दिया और राज-काज छोड़कर अपनी पत्नी के वियोग में वो विक्षिप्तों की तरह व्यवहार करने लगे. ऋतुध्वज के एक प्रिय मित्र थे नागराज. उनसे अपने मित्र की ये अवस्था देखी न गई और वो हिमालय पर तपस्या करने चले गये ताकि महादेव शिव को प्रसन्न कर सकें. शिव प्रकट हुए और वरदान मांगने को कहा तो नागराज ने उनसे अपने लिये कुछ न मांग कर अपने मित्र ऋतुध्वज के लिये मदालसा को पुनर्जीवित करने की मांग रख दी. शिवजी के वरदान से मदालसा अपने उसी आयु के साथ मानव-जीवन में लौट आई और पुनः ऋतूध्वज को प्राप्त हुई.
मृत्यु के पश्चात मिले पुनर्जीवन ने मदालसा को मानव शरीर की नश्वरता और जीवन के सार-तत्व का ज्ञान करा दिया था, अब वो पहले वाली मदालसा नहीं थी लेकिन उसने अपने व्यवहार से इस बात को प्रकट नहीं होने दिया. पति से वचन लिया कि होने वाली संतानों के लालन-पालन का दायित्व उसके ऊपर होगा और पति उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगें. मदालसा गर्भवती हुई तो अपने गर्भस्थ शिशु को संस्कारित करने लगी. उसे भी वो ज्ञान देने लगी जिस ज्ञान से वो स्वयं परिपूर्ण थी. वो अपने गर्भस्थ शिशु को लोरी सुनाते हुये कहती थी कि ऐ मेरे बेटे, तू शुद्ध है, बुद्ध है, संसार की माया से निर्लिप्त है. एक के बाद एक तीन पुत्र हुए, पिता क्षत्रिय थे, उनकी मान्यता थी कि पुत्रों का नाम भी क्षत्रिय-गुणों के अनुरूप हो इसलिये उस आधार पर अपने पुत्रों का नाम रखा, विक्रांत, सुबाहू और शत्रुमर्दन. उसके सारे पुत्र मदालसा से संस्कारित थे, मदालसा ने उन्हें माया से निर्लिप्त निवृतिमार्ग का साधक बनाया था इसलिये सबने राजमहल त्यागते हुये संन्यास ले लिया. पिता बड़े दु:खी हुये कि ऐसा हुआ तो कैसे चलेगा. मदालसा फिर से गर्भवती हुई तो पति ने अनुरोध किया कि हमारी सब संतानें अगर निवृतिमार्ग की पथिक बन गई तो ये विराट राज-पाट को कौन संभालेगा इसलिये कम से कम इस पुत्र को तो राजकाज की शिक्षा दो. मदालसा ने पति की आज्ञा मान ली. जब चौथा पुत्र पैदा हुआ तो पिता अपने पहले तीन पुत्रों की तरह उसका नाम भी क्षत्रियसूचक रखना चाहते थे जिसपर मदालसा हँस पड़ी और कहा, आपने पहले तीन पुत्रों के नाम भी ऐसे ही रखे थे उससे क्या अंतर पड़ा फिर इसका क्षत्रियोचित नाम रखकर भी क्या हासिल होगा. राजा ऋतुध्वज ने कहा, फिर तुम ही इसका नाम रखो. मदालसा ने चौथे पुत्र को अलर्क नाम दिया और उसे राजधर्म और क्षत्रियधर्म की शिक्षा दी.
अलर्क दिव्य माँ से संस्कारित थे इसलिये उनकी गिनती सर्वगुणसंपन्न राजाओं में होती है. उन्हें राजकाज की शिक्षा के साथ माँ ने न्याय, करुणा, दान इन सबकी भी शिक्षा दी थी. वाल्मीकि रामायण में आख्यान मिलता है कि एक नेत्रहीन ब्राह्मण अलर्क के पास आया था और अलर्क ने उसे अपने दोनों नेत्र दान कर दिये थे. इस तरह अलर्क विश्व के पहले नेत्रदानी हैं. इस अद्भुत त्याग की शिक्षा अलर्क को माँ मदालसा के संस्कारों से ही तो मिली थी.
बालक क्षत्रिय कुल में जन्मा हो तो ब्रह्मज्ञानी की जगह रणकौशल से युक्त होगा, नाम शूरवीरों जैसे होंगें तो उसी के अनुरूप आचरण करेगा इन सब स्थापित मान्यताओं को मदालसा ने एक साथ ध्वस्त करते हुए दिखा दिया कि माँ अगर चाहे तो अपने बालक को शूरवीर और शत्रुंजय बना दे और वो अगर चाहे तो उसे धीर-गंभीर, महात्मा, ब्रह्मज्ञानी और तपस्वी बना दे. अपने पुत्र को एक साथ साधक और शासक दोनों गुणों से युक्त करने का दुर्लभ काम केवल माँ का संस्कार कर सकता है जो अलर्क में माँ मदालसा ने भरे थे. स्वामी विवेकानंद ने यूं ही नहीं कहा था कि अगर मेरी कोई संतान होती तो मैं जन्म से ही उसे मदालसा की लोरी सुनाते हुये कहता, त्वमअसि निरंजन…
भारत की धरती मदालसा की तरह अनगिनत ऐसे माँओं की गाथाओं से गौरवान्वित है जिसने इस भारत भूमि और महान हिन्दू धर्म को चिरंजीवी बनाये रखा है. ये यूं ही नहीं है कि परमेश्वर और देवताओं की अभ्यर्चनाओं से भरे ऋग्वेद में ऋषि वो सबकुछ माँ से मांगता है जिसे प्रदत्त करने के अधिकारी परमपिता परमेश्वर को माना जाता है, ऋषि माँ से अभ्यर्चना करते हुए कहता है,
हे उषा के समान प्राणदायिनी माँ. हमें महान सन्मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित करो, तुम हमें नियम-परायण बनाओ और हमें यश तथा अद्भुत ऐश्वर्य प्रदान करो.
माँ की महिमा का इससे बड़ा प्रमाण और कहीं मिलेगा?