The Background : Let there be no tax on tax – The guiding principle.
करीब तेईस साल पहले भारत के इनडायरेक्ट टैक्स स्ट्रक्चर पर नरसिम्हा राव सरकार ने एक कमेटी बनाई थी. डॉ अमरेश बागची कमेटी. डॉ बागची ने 1994 में अपनी रिपोर्ट में भारत के टैक्स स्ट्रक्चर को दुनिया का सबसे काम्प्लेक्स स्ट्रक्चर बताया था. इररेशनल, इललॉजिकल, रिग्रेसिव उनके अन्य शब्द थे.
इसका सबसे बड़ा कारण था कैस्केडिंग इफेक्ट ऑफ़ टैक्सेज. तीन अलग अलग तरह का कैस्केडिंग इफेक्ट –
1. भारत में संघीय शासन प्रणाली है. केंद्र है, राज्य है. दोनों ही व्यापार पर टैक्स लगाते हैं. मैन्युफेक्चरिंग पर एक्साइज केंद्र लगाता है, सर्विस टैक्स केंद्र वसूलता है, तो रिटेल / ट्रेड यानी खरीदी-बिक्री पर टैक्स राज्य लगाते हैं.
एक कंपनी जो माना कि स्टील से कुछ बर्तन बनाती है. वो अपने उत्पादन पर पहले एक्साइज ड्यूटी देती है. माना 100 रूपये किसी बर्तन की कीमत है और उस पर एक्साइज ड्यूटी 12 प्रतिशत है. जिसके बाद उसकी कीमत हो गई 112 रूपए.
किसी वितरक ने कंपनी से बर्तन ख़रीदा और उस पर सेल्स टैक्स चुकाया. जोकि कह लीजिये 5% है. ये 5% टैक्स 100 रूपये कीमत पर नहीं बल्कि 112 रूपये पर लगता है. बर्तन की अपनी कीमत और उस पर एक्साइज ड्यूटी जोड़कर सेल्स टैक्स लगता है.
12 रूपये की एक्साइज ड्यूटी पर लगे सेल्स टैक्स की वजह से बर्तन 60 पैसे ज्यादा महंगा हो गया.
2. यही कंपनी अपना कच्चा माल स्टील किसी और कंपनी से लेती होगी. मान लीजिये एक बर्तन के लिए करीब 50 रूपये का स्टील लगा. जिसे जब ख़रीदा गया तो उस पर भी सेल्स टैक्स और एक्साइज ड्यूटी दोनों ही कंपनी ने दी. स्टील बेचने वाली कंपनी ने कहीं किसी खदान से लोहा ख़रीदा होगा उस पर सेल्स टैक्स और एक्साइज ड्यूटी दी होगी.
माल एक जगह से दूसरी जगह यानी शहर ले जाने में अगर चुंगी भी पड़ी होगी तो ये सभी टैक्स जुड़ते गए, जो लोहा 10 रूपये का था उस पर सेल्स टैक्स एक्साइज पड़कर 12 रुपया हुआ. स्टील वाली कंपनी ने जब बर्तन वाली कंपनी को 50 रूपये का बेचा तब पहले के टैक्स पर टैक्स लगा कर बेचा.
लोहे पर टैक्स, स्टील पर टैक्स, फिर बर्तन पर टैक्स
सोचने की बात है, जो बर्तन एक ग्राहक खरीदेगा, वो न जाने कितने टैक्स दे देकर गुजरा होगा. हो सकता है राज्य सरकार ने दया दिखाते हुए बर्तन पर टैक्स 2% कर दिया हो, लेकिन पहले ही उस पर इतना टैक्स लग चुका था जिसकी दर 30% या उससे ज्यादा हो सकती है.
3. एक पंजाब के व्यापारी ने केरल से शर्ट मंगाई 100 रूपये की जिस पर सेंट्रल सेल्स टैक्स 10% भरा. व्यापारी को 110 रूपये की शर्ट पड़ी. उस पर उसने 10 रूपये अपना मार्जिन लगाया और ग्राहक को 120 रूपये और 5% सेल्स टैक्स में बेचा. ग्राहक को 126 रूपये की कमीज पड़ी.
अब अगर व्यापारी को इनपुट टैक्स क्रेडिट होता तो वो ग्राहक को शर्ट 125 रूपये में देता.
आज GST की दरों को लेकर इतना उबाल है. लोग 18% और 28% जितनी ऊँची दरों पर एतराज कर रहे हैं लेकिन नहीं जानते कि कहने को पहले सेल्स टैक्स 2% भी हो, तो भी हम करीब 18-28% टैक्स दे ही चुके होते हैं.
सरकार को जब इस कैस्केडिंग के जरिये इतनी कमाई हो रही थी फिर उसे सुधार की जरूरत क्यों पड़ी?
क्योंकि अंतपंत नुकसान भी देश को ही हो रहा था. सबसे बड़ा नुकसान एक्सपोर्ट में था. कोई भी कंपनी जो अपने माल को विदेशो को निर्यात करना चाहती थी उसे कच्चा माल खरीदने में, अर्ध निर्मित कच्चे माल में टैक्स पर टैक्स देना पड़ता था. जिसके नतीजे में विदेशी बाजार में उसके माल की कीमत उसके प्रतिद्वंदियों से ज्यादा होती थी.
निर्यात में लगी कंपनियों को टैक्स के कैस्केडिंग इफेक्ट की वजह से प्राइसिंग एडवांटेज नहीं मिलता.
और दूसरी तरफ घरेलू खपत में लगी कम्पनियाँ इम्पोर्टेड वस्तुओं के सामने कम्पीट नहीं कर पाती.
दोनों ही दशाओं में लागत का जब एक बड़ा हिस्सा टैक्स में जा रहा हो तो उत्पाद की फ़ाइनल कीमत पर कंट्रोल नहीं रहता.
और फिर केंद्र सरकार को, प्रदेश सरकारों को टैक्स में विभिन्न तरह की छूट देनी पड़ती है. ताकि एक्सपोर्ट के लिए कम्पनियाँ कॉम्पिटिशन में बनी रहें. या इम्पोर्ट के सामने देशी कम्पनियाँ टिक सकें.
और जब टैक्स एक्जम्प्शन शुरू होते हैं तो प्रदेशो में आपसी प्रतियोगिता शुरू होती है. कई राज्य अपने यहाँ लगने वाले उद्योगों को सस्ती जमीन के अलावा सेल्स टैक्स में छूट का भी वादा करते हैं.
या अपने पडोसी राज्य की तुलना में बहुत सी वस्तुओ का टैक्स रेट कम रखते हैं. उदाहरण है कारो के दाम. लोग बगल के प्रदेश से कार या बाइक खरीदते हैं क्योंकि उधर सस्ती मिल जाती है.
पेट्रोल डीजल के दाम हर प्रदेश में अलग मिलेंगे.
इसी तरह कंपनियों को CST (केंद्रीय सेल्स टैक्स) बचाने के लिए तकरीबन हर प्रदेश में वेयर हॉउस बनाने पड़ते हैं. जहाँ वो अपना माल स्टॉक करके रखते हैं.
और सबसे अंत में हरएक को लालच तो रहता ही है कि या तो टैक्स वसूल करके दबा लो सरकार को मत दो. या बिना बिल के सामान बेचो टैक्स का झंझट ही नहीं.
2000 के दशक में इन सबसे छुटकारा पाने के लिए वैट यानि वैल्यू एडेड टैक्स की शुरुआत हुई. लेकिन ये वैट तभी प्रभावी था जब पूरा व्यापार एक ही प्रदेश में हो. तब टैक्स इनपुट की सुविधा हासिल थी.
लेकिन अगर माल दूसरे प्रदेश में बेचा जाये तब वैट की जगह CST लगता है और इनपुट टैक्स की सुविधा समाप्त.
ये वजहें हैं कि सरकार एक देश एक टैक्स की ओर जाना चाहती है यानि GST की ओर.
अगली कड़ी में GST पर कुछ और बातें