सिनेमा के बहाने : डेनियल डे ल्यूइस का संन्यास, अभिनेता का क़द और मेरिल स्ट्रीप

आकर्षण सिनेमा की सबसे विशिष्ट पहचान है. और बक़ौल जयप्रकाश चौकसे सिनेमा यक़ीन दिलाने की कला है. इस आकर्षण और यक़ीन के बीच कुछ ऐसी गहमागहमी है इन दिनों कि पिछले कुछ समय से बात हॉलीवुड के इर्द-गिर्द ही घूम रही है. हालांकि, मन पिछले कुछ समय से रशियन और जेपनीज़ सिनेमा पर बात करने का है जिसकी बात अब तक यहाँ नहीं हो पाई है.

बहरहाल, हॉलीवुड में घूमने का कारण इस बार भी दो अभिनेता ही हैं. ब्रिटिश मूल के अभिनेता डेनियल डे ल्यूइस और अमेरिका की ही सबसे सफलतम अभिनेत्रियों में से एक मेरिल स्ट्रीप. बस अभी कुछ ही दिन पहले ख़बर ने चौंकाया कि सिनेमा के महानतम अभिनेताओं में से एक डेनियल डे ल्यूइस अब अभिनय से संन्यास ले रहे हैं.

यह इसलिये भी कम आश्चर्यजनक नहीं कि डेनियल वैसे भी अपने काम को लेकर बहुत ही संजीदा हैं और उतने ही ‘सिलेक्टिव’ भी. फिर उम्र भी कोई ज़्यादा नहीं केवल साठ के आसपास. ऐसे में डेनियल क्यूँ उस पेशे से विरत हो रहे हैं जिसने उन्हें दौलत और शोहरत के साथ ही सिनेमा इतिहास के पन्नों पर सुनहरी इबारतों में स्थान दिया? यूं भी वे अंतर्मुखी स्वभाव के माने जाते हैं. उनके अपने शब्दों में इसे साफ़ महसूस किया जा सकता है जहां वे ये मानते हैं कि कई फ़िल्मों में काम करते हुए उनके लिए किरदार से वापस आना चुनौती भरा और भावनात्मक रूप से असहज करने वाला अनुभव रहा है.

सिनेमा के मुरीद जानते हैं कि मैथड एक्टिंग के वे सबसे बड़े अभिनेता माने जाते हैं और किरदार में डूब कर काम करना उनकी फ़ितरत ही नहीं बल्कि जीवन का हिस्सा रही है. सोचने पर ‘माय लेफ़्ट फ़ुट’, ‘इन द नेम ऑफ द फ़ादर’, ‘गैंग्स ऑफ़ न्यूयॉर्क’, ‘देअर विल भी ब्लड’, ‘लिंकन’ जैसी कई फ़िल्में याद आती हैं जहां डेनियल को किरदार में देखना एक अद्भुत अनुभव है. उस पर चरित्र को जीने के लिए दिनों नहीं बल्कि हफ़्तों और कई बार तो महीनों ही किरदार में रहने का उनका अपना तरीक़ा है.

ज़ाहिर है भावनाओं की एक सीमा भी होगी जिसके पार जाना शायद ख़ुद उनके भी वश में नहीं. उस पर अपने बारे में एक सीमा तक ही बात करने की उनकी हदें और हिदायतें दोनों हैं. डेनियल विश्व के उन बिरले अभिनेताओं में एक हैं जो सिनेमा और रंगमंच पर समान रूप से सक्रिय रहे. उरूज़ के दिनों में भी और मुफ़लिसी के दिनों में भी. मन न लगा अभिनय में तो कुछ समय मोची का काम भी किया और फिर लकड़ी पर काम करने में भी कलाकारी ने यायावरी ही दी है. उस पर भी ऑस्कर ने काम पर वो मोहर लगाई कि इस प्रतिष्ठित अवार्ड के नब्बे वर्षों के इतिहास में केवल तीन पुरुष अभिनेताओं ने तीन बार यह अवार्ड जीता और उनमें एक नाम डेनियल ही हैं.

ऐसा क्या है जो डेनियल को वो बनाता है जहां शिखर पर होकर भी वहाँ से लौट आना बहुत ही आसान है? इसका जवाब उनकी शिखर तक की यात्रा में ही छिपा है. शुरू से ही डेनियल ने स्वस्थ दूरी के समीकरण में अपना विश्वास रखा. चुनिन्दा भूमिकाओं के लिए अगर हाँ भी कहा तो भीतर की आवाज़ ने पहले संशय ही सामने रखा. इतनी योग्यता के बाद भी कि ‘तुम इसे कर सकोगे या नहीं’?

पर जब एक बार हाँ कहा तो फिर चुनाव के परिणाम के लिए वे अद्भुत समर्पण और अनुशासन के साथ ही अवतरित हुए. छह फुट लंबे डेनियल की क़द-काठी, वज़नदार आवाज़, मंत्रमुग्ध कर देने वाला व्यक्तित्व, किरदार की तह में घुस कर उसे अपनी नसों में घोल लेने या आम-विशेषण की भाषा में घोल के पी जाने वाली अभिनेता की तैयारी ने उनके आगे बाकी के अभिनेताओं को फीका साबित कर दिया.

संगीत में वाद्ययंत्रों के वादन ली लहरों की तरह माता-पिता-मामा के कविताई संस्कार और प्रसिद्ध उपन्यासकार आर्थर मिलर के दामाद के रूप में अवचेतन की रचनात्मकता उनका बड़ा संबल रही. शुरुआती कामों में सहायक अभिनेता की भूमिकाओं में ‘गांधी’, ‘द बाउंटी’, ‘अ रूम विद अ व्यू’ जैसी फ़िल्मों ने उनकी अभिनय यात्रा का आगाज़ किया. पर डेनियल की जुनूनी फ़ितरत क्रिस्टी ब्राउन के रूप में उनका इंतज़ार कर रही थी.

भीतर की खोल में अनुभव सम्पन्न, काम में दक्ष अभिनेता की छवि ने ‘माय लास्ट फ़ुट’ में क्रिस्टी ब्राउन का जो किरदार गढ़ा और जिया उसके लिए अद्भुत और अकल्पनीय जैसे विशेषण भी कम ही हैं. इसी फ़ितरत ने जिम शेरीडान और मार्टिन स्कॉर्सिज़ी जैसे निर्देशकों को डेनियल की कलात्मक अभिव्यक्ति का निचोड़ हासिल करने और उन्हें अपनी मनपसंद भूमिकाओं के निर्वहन के लिए राज़ी कर लेने वाला सुख भी प्रदान किया.

‘माय लास्ट फ़ुट’ के बाद जिम की ही फ़िल्म ‘इन द नेम ऑफ द फ़ादर’ लंदन के एक पब में हुए बम ब्लास्ट के बाद पकड़े गए गैरी कोलों (डेनियल डे ल्यूईस) के इर्द-गिर्द घूमती है और पिता से कड़वाहाट के बाद जेल के अनुभवों और जेल में ही पिता की मृत्यु के बाद उन्हें निर्दोष साबित कर देने की लड़ाई तक जाती है. सत्यकथा आधारित इस फ़िल्म को उनकी प्रमुख फ़िल्मों में एक गिना जाता है. जिसे देखने की तसल्ली के बाद अभिनेता के साथ कहानी के प्रभाव और निर्देशक का अभिनेता के चुनाव जैसी चीज़ों की अहमियत का पता लगता है. डेनियल डे ल्यूइस उन विरले अभिनेताओं में हैं जिन्होंने ‘मैथड एक्टिंग’ की तकनीक को अपनी अभिव्यक्ति का हथियार बनाया और जिसके बलबूते अभिनय की परिभाषा अभिनेताओं के लिए सबक की तरह रची.

अभिनेता अपनी फ़िल्म के नाम से ही जाना जाता है और यही उसके काम का सच्चा हासिल है. जब बात मैरिल स्ट्रीप जैसी अभिनेत्री की हो तो आँख बंद कर के ‘क्रेमर वर्सेस क्रेमर’, ‘सोफीज़ चॉइस’, ‘द आयरन लेडी’, ‘द डीअर हंटर’ ‘इन टू द वुड्स’ जैसी कई फ़िल्में याद आती हैं. मैरिल को याद करने का बहाना कल उनके जन्म की तारीख़ से जुड़ा है.

बीस से भी ज़्यादा ऑस्कर नॉमिनेशन और तीन बार की ऑस्कर विजेता मेरिल का अभिनय संसार रंगमंच और किरदार को जीने की भूख से ही जुड़ा हुआ है. मेनस्ट्रीम हॉलीवुड की प्रमुख नायिकाओं में से एक मेरिल का सहज अभिनय और स्पीच उनकी ताकत है. एक सादे और साफ़गोई वाले चेहरे के साथ आवाज़ और लहज़े की बड़ी रेंज उनके पास मौजूद है.

अभिनेता का क़द सिनेमा में क्या होता है, यह एक शाश्वत प्रश्न है जिसका उत्तर या उसका आकलन संभव भी नहीं. पर डेनियल या मेरिल जैसे अभिनेता दशकों तक काम करने के बाद किंवदंती बन जाते हैं. डूबना, उभरना हो जाता है. चाहना, समय और सरहदों के पार महत्त्वकांक्षाओं से परे आदर्श बन जाती है. यह कला का जादू है. सिनेमा का जादू है. उसमें जीने और सपने देखने वाले लोगों की ज़िद का जादू है.

अभिनय केवल प्रस्तुतिकरण नहीं उससे कहीं आगे की चीज़ है. इन दो अभिनेताओं ने कहानियों को सिनेमा माध्यम में कहने के लिए आने वाली पीढ़ी को भी भरोसा दिया है. सफ़र तो जारी रहेगा ही, बरबस ही ‘आनंद’ में राजेश खन्ना के कहे हुए शब्द याद आ रहे हैं ‘ज़िंदगी बड़ी होनी चाहिए लंबी नहीं’! सिनेमा यूं भी भावनाओं को भरापूरा रखने में यक़ीन करता है. हाँ, बड़ी ज़िंदगी का फलसफ़ा शायद कलाकार के अवचेतन में कहीं बैठा ज़रूर रहता है. सलाम है ऐसी यायावरी को और जीवन से दोस्ती को.

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