एक पेड़ के तौर पर अशोक महत्वपूर्ण होता है. आयुर्वेद में इसकी छाल पीस कर हड्डियाँ जोड़ने में भी इस्तेमाल किये जाने का जिक्र होता है. इसके पत्तों को कुछ देर पानी में डालकर फिर उसे छान कर पीना भी स्वास्थप्रद माना जाता है.
अगर टीवी पर कभी अशोकारिष्ठ नाम की किसी चीज़ का प्रचार देखा-सुना हो तो आपको ये भी पता होगा कि स्त्रियों की कई शारीरिक व्याधियों को दूर करने में काम आता है. पुराने जमाने में मान्यता थी कि इसके आलिंगन से प्रिय के दर्शन होते हैं, इसलिए इसी वृक्ष का एक नाम “प्रियदर्शी” भी था.
जब शिलालेखों में एक राजा प्रियदर्शी का नाम मिला तो इतिहासकारों ने उसका असली नाम तय करने की कोशिश की. आख़िरकार पुराणों से मौर्यों की जानकारी निकाल कर तय किया गया कि ये प्रियदर्शी कोई और नहीं बल्कि मौर्य वंश का नाश करने वाले अशोक थे.
भारतीय परम्पराओं में चूँकि बुरे का जिक्र ही बंद कर देते हैं इसलिए अशोक का नाम लेना ही बंद कर दिया गया था. इतिहास, लोकसाहित्य और किस्से कहानियों से गायब इस राजा को दोबारा स्थापित करना पड़ा. किस्से कहानियों से गायब होने के कारण अशोक का ऐसे तो ज्यादा जिक्र नहीं आता लेकिन उनकी एक पत्नी का जिक्र बौद्ध ग्रंथों में कई बार आता है.
ये पत्नी थी तिष्यरक्षिता जो कि अत्यंत कामुक मानी जाती थी. अशोक शायद वृद्ध हो चुके थे जब उनका तिष्यरक्षिता से विवाह हुआ. माना जाता है कि इस वजह से तिष्यरक्षिता का ध्यान अन्य पुरुषों पर रहता था. एक मान्यता में उनकी निगाह अशोक के ही एक पुत्र कुणाल पर थी और कुणाल उनके प्रयासों को कोई भाव नहीं देता था इसलिए वो उस से नाराज रहती थी.
दूसरी प्रचलित मान्यता ये है कि वो अपने पुत्र को राजा बनते देखना चाहती थी, जबकि अशोक कुणाल को अगला मौर्य सम्राट बनाना चाहते थे. इस वजह से तिष्यरक्षिता, कुमार कुणाल से खार खाए बैठी थी. जो भी वजह हो, उनकी कुणाल से शत्रुता का अंत बड़ा भयावह निकला. कहते हैं कि कुणाल को अगले राजा के रूप में शिक्षित करने के लिए अशोक ने अपने मंत्रियों को पत्र लिखा “कुमार अधियती”. पत्र किसी तरह तिष्यरक्षिता के हाथ लग गया और उन्होंने अपनी आँख के काजल से उसमें एक बिंदी बना दी. अनुस्वार की मात्रा पड़ते ही पत्र हो गया “कुमार अंधियती”. अधियती का मतलब जहाँ शिक्षा दो होता है, अंधियती का मतलब था अँधा कर दो, और अँधा राजा नहीं बन सकता था. नेत्रहीन कुणाल बाद में अपनी बहन के साथ लंका में बौद्ध धर्म प्रचार के लिए चले गए और मौर्य वंश नाश की ओर बढ़ा.
बाकी समझ ही गए होंगे कि मामूली सा उच्चारण का फर्क, कैसे अर्थ का अनर्थ कर सकता है. तो कोई मीरा को भी समझाए भाई कोविंद है, कोविंद ! गोविंद नहीं है. कहाँ दौड़ पड़ी हैं ? बैठ जाइए, बैठ जाइए.