जीएसटी और धुआं

जो लोग जीएसटी में मीनमेख निकालने में लगे हैं, नून पर इतना ज्यादा कर, तेल पर इतना कम कर, जापान में इतना, जर्मनी में इतना आदि रोए गाए जा रहे हैं, उन्हें कुछ और बातों पर भी ध्यान देना चाहिए जिन्हें मैं यहाँ क्रमवार लिख रहा हूँ. कई बार छोटी-छोटी बातों में उलझ जाने पर बड़ी बातें दिखनी बन्द हो जाती हैं.

मैं अर्थशास्त्री नहीं हूँ, हकीम हूँ. अच्छा है कि अर्थशास्त्री नहीं हूँ वरना मेरी आँखों में धुआं भरा होता और वही धुआं मैं आपकी आँखों में झोंकता. वाक्जाल और waffle का धुआं.

हकीमी के कुछ फ़ायदे हैं. कोई गारंटी तो नहीं पर हकीमी की प्रैक्टिस से आपका बौद्धिक अनुशासन मज़बूत हो सकता है. आपको इतने सारे मरीज देखने हैं, आपको सारी धुँध छाँट कर मूल बात पर और उसकी चिकित्सा पर ध्यान देना है.

डाक्साब, पचीस साल पहले मेरे घुटने में चोट लगी थी, तीन सौ साल पहले मेरा ऐपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ था, मेरी सास से मेरी नहीं पटती, मेरे ससुर शराब बहुत पीते हैं, पेट की गैस अब कान से सुरसुर निकल रही है, जैसी बातों में उलझे तो आप उलझे ही रह गए. फिर तो आप हकीमी छोड़िए, बुद्धिजीवी या प्रगतिशील हिन्दी साहित्यकार बन जाइए.

1. आपके ध्यान में कभी आया कि हमारा देश कितना महान है कि जहां दुनिया में और जगह दशकों से कई, कभी-कभी दर्जनों देश मिल कर एक साझा बाज़ार बना रहे हैं, आजादी के सत्तर वर्ष बाद हमारे एक देश में क़रीब तीस अलग-अलग बाज़ार हैं.

मसलन यदि आपको कोई सामान फ़्रांस से जर्मनी और फिर जर्मनी से इटली और फिर इटली से ग्रीस ले जाना हो तो कहीं कोई चुंगी, कोई काग़ज़ पत्तर, अलग-अलग टैक्सों का लेना-देना नहीं. देशों की सीमाओं पर ट्रकों की लम्बी लाइनें नहीं.

और हमारे यहाँ? कोई ट्रक तमिलनाडु से कश्मीर भेजना हो तो दस राज्यों की सीमाओं पर चुंगी देता हुआ, जगह-जगह ट्रैफ़िक की लहरों से जूझता हुआ वह ट्रक जब तक कश्मीर पहुँचेगा, काग़ज़ों का जाल और पैसों की नहर बहा चुका होगा.

2. हमारी व्यवस्था कितनी मूर्खतापूर्ण, बर्बादी करने वाली और अक्षम (inefficient) है, यह समझने के लिए क्या बहुत बड़ी मेधा की आवश्यकता है?

3. हमें यह मामूली सी और स्पष्ट सी बात समझने में सत्तर वर्ष क्यों लगे? या फिर बात शायद समझ में आई तो भी सत्तर साल हमने इतनी सीधी बात के बारे में भी कुछ भी क्यों नहीं किया? यह बात हमारे राजनीतिक तंत्र के बारे में क्या कहती है?

4. हमने करों का महाजाल बनाया जिसमें हमारी अर्थव्यवस्था फँस गई. हमने निहित स्वार्थों का जाल भी मेहनत से बनाया.

5. इस इतनी मेहनत से बनाए गए जाल को तोड़ने में कितनी मशक़्क़त करनी पड़ी है, आपने कभी सोचा? सिर्फ आर्थिक ही नहीं राजनीतिक भी. संविधान में संशोधन की दरकार थी. उसके लिए दोनो सदनों में दो तिहाई बहुमत चाहिए.

आपने देखा कितनी तिकड़में लगाई गईं जीएसटी को रोकने के लिए. केन्द्र सरकार, उसके विभिन्न विभाग, तीस के बराबर राज्य सरकारें, उनके आर्थिक और राजनीतिक हित. आदमी पागल हो जाए.

अब देखिए, अगरबत्ती तमिलनाडु में बनती है तो तमिलनाडु चाहेगा कि अगरबत्ती पर अधिक से अधिक कर लगे. और बिहार तमिलनाडु से अगरबत्ती आयात करता है तो बिहार चाहता है कि अगरबत्ती पर कम से कम कर लगे.

इतने सारे stakeholders को एक लाइन पर लाना, एक-दूसरे के ख़िलाफ़ काम करने वाले आर्थिक और राजनीतिक निहित स्वार्थों को सलटा कर एक लाइन पर लाना – यह कोई मामूली बात है? चमत्कार है, चमत्कार. कभी अपने दफ़्तर में या परिवार में इससे हजार गुना आसान चीज सलटाने की कोशिश करिये, बुद्धि ठिकाने आ जाएगी, आप काँख देंगे.

6. दुनिया में कहीं भी कोई आदर्श कर व्यवस्था नहीं है. इस धरती पर इस तरह का कोई जीव कहीं नहीं है. हर व्यवस्था में winners और losers होंगे.

इसलिए हांव-हांव कांव-कांव कम करिए और सरकार को बधाई दीजिए जिसने इतनी मेहनत, perseverance, और negotiating skill का परिचय दे कर यह मकड़जाल साफ करने की जुर्रत दिखाई है. और खास तौर पर बधाई दीजिए अरुण जेटली को जिन्होंने इतना बड़ा काम किया है. दूसरा कोई होता तो भाग लिया होता.

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