मोमबत्तियां पीड़िता को संवेदना का प्रकाश नहीं, देती हैं आत्मग्लानि की आग

सालों पहले हमारे घर में डकैती हुई.. सामान ज्यादा नहीं ले जा पाए पर घर में उस वक्त अकेले मेरे भैया को बहुत बुरी तरह मारा.. उन्हें बिस्तर छोड़ने में महीने भर से ज्यादा लगा..

फिर एक और डकैती हुई हमारे एक जानने वाले के यहाँ.. उनकी बीवी अपने दो छोटे बच्चो के साथ घर पर थी और उसके साथ बलात्कार हुआ.. हास्पिटल ले जाया गया और भाग्य से उन्हें शारीरिक क्षति ज्यादा नहीं पहुंची थी.. वो कुछ दिनो में शारीरिक रूप से रिकवर कर गयी पर महीनों लगे उन्हें मानसिक रूप से रिकवर करने में.महीनों तक वो डिप्रेसन में रही और उस घटना का छाप उनपर आज भी कहीं ना कहीं हैं..परिवार और समाज उनको लेकर बहुत कोपरेटिव रहा..पति हर छोटी से छोटी बात का ध्यान रखता जो किसी भी रूप में उस महिला को स्ट्रेस न दे..

अब आगे की बात असंवेदनशील प्रतीत होगी लोगों को, पर सच है. क्या डिफ़रेंस था दोनों मामले में? एक लड़के के साथ बुरी तरह शारीरिक हिंसा हुई, और एक लड़की के साथ उससे कम हिंसा हुई पर चूँकि “बलात्कार” शब्द अपने आप में इतना ज्यादा हव्वा बन चूका है कि किसी को मार कर अधमरा कर दिया जाए या मौत से बदतर हालत कर दी जाए तब भी हम उसके बदले में एक बलात्कार की घटना को ज्यादा महत्व देंगे (भले ही पीड़ित को शारीरिक क्षति ज्यादा ना पहुंची हो).

क्यों? क्योंकि हमने बलात्कार को हर हिंसा और अपराध से परे रखा हैं. हमारा मानना हैं कि बलात्कार औरत के शरीर के साथ नहीं बल्कि उसकी आत्मा के साथ होता हैं. और इस सोच का सबसे बड़ा खामियाजा पीड़ित व्यक्ति को उठाना पड़ता है. पढ़े-लिखे लोग सम्वेदना के नाम पर इस सोच को बढ़ावा देते हैं और कैंडल मार्च कर के खुश हो लेते हैं कि वो जिम्मेदार नागरिक हैं.

पर इन बलात्कार पीड़ितो की जिंदगी को वापस ढर्रे पर लाने का काम कौन करता है?? मनोवैज्ञानिक और मनोचिकित्सक. लम्बे-लम्बे कॉन्सलिंग सेशन होते हैं जहाँ हम उस घटना की छाप मिटने की कोशिश करते हैं और हमारे सामने समाज के दो तबके सबसे बड़ी समस्या पैदा करते हैं – एक तो दकियानूसी समाज जो बलात्कार पीड़ित को किसी एलियन की नजर से देखता है और दूसरा प्रगतिशील समाज जो बलात्कार को औरत की अस्मिता, आजादी, अस्तित्व पर हमला से जोड़ देता हैं. समाज में फैली इस मानसिकता को लेकर एक पीड़ित का रिकवर करना बहुत मुश्किल होता है. हालाँकि वही बलात्कार अगर पुरुष के साथ हुआ हो तो हमारी सम्वेदना में उन्नीस-बीस का फर्क तो हो ही जाता हैं.

जबतक बलात्कार को हम सिर्फ एक अपराधिक हिंसा के रूप में देखना शुरू नहीं करेंगे, बलात्कार से लड़ने की ताकत पीड़ितो को नहीं दे पाएंगे. अपराध बस अपराध होता हैं, चाहे रोड रेज की घटना में एक पुरुष के सर पर रॉड मारना हो या एक स्त्री के अंगो के साथ खिलवाड़. अगर आपने कुछ ख़ास अंगों के साथ अपराध को ज्यादा वीभत्स मान लिया है तो यह अपने आप में उस प्रगतिशील नारीवादी सोच के उलट हैं जो कहती हैं कि स्त्री के स्तन या योनि को हव्वा ना बनाया जाये.

इसका मतलब यह कतई नहीं हैं कि बलात्कार के विरोध में कमी की जाए लेकिन किसी भी अपराध से लड़ने के लिये बुलन्द इरादे और कड़े कानून चाहिए होते हैं ना कि सम्वेदना के नाम पर ऐसी सोच जो आधी आबादी के दिमाग में यह बात बैठाती हैं कि उनका बलात्कार हो गया तो उनके साथ कुछ ऐसा हो गया जिस से रिकवर नहीं किया जा सकता.

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